ज़िंदगी के सफ़र में कुछ अफ़साने अपने थे कुछ अपनों के, कुछ बोझ अपना था कुछ अपना सा, कुछ ख़्वाब हमने सजोए थे कुछ ज़िंदगी ने दिखाए. कभी भरे बसंत के हवा तो निष्ठुर पूष की कहर, फूलों के मेहक सी कांटों की दर्द सी भी, रंगों से सजी रंगोली स्याह आसमां का दर्द भी, कुछ यूँ ज़िंदगी का फ़लसफ़ा.— % &
उसको तो इल्म भी न था की अब मैं वहाँ ना था, नज़रों से जहाँ उसने पाया था बाहों में भर जहां अपना कहा था. सकूं की तलाश में दूर कहीं खड़ा था मैं, एक अलग ही पता अब बना था सायों के शेहर में जो था.— % &
लम्हों को जी ले फ़िर से, सफ़र जो रह गया था अधूरा चलो आज उनको पूरा करते, ढल रहा जो सूरज अकेला उसको भी विदा कर आते हैं, चाँद छुपा बैठा जो आसमां में उसको संग ले फ़िर सफ़र करते, दबी सी जो मुश्कान है उनको फ़िर ढूंढ लाते हैं, रेखाओं में खोए अधूरे ख़्वाब जो उनको आज फ़िर से है सजाते, क्यों ना आज फ़िर से...
तू आज भी ढो रहा, ऐ पथिक तू मुझको बता क्या तू ने अब तलक़ है पाया. ठहर जा तू ज़रा एक पल को मंथन कर ज़रा तू ने खोया क्या कंधों पर रखा ये अतीत का साया पाओं में तेरी ज़र रखी बैरियाँ बनी. ख़ुद को कर तू आज़ाद ज़रा मुड़ कर एक दफ़ा देख तो ज़रा अपने अश्कों में तू ख़ुद ही बह रहा फ़िर क्यों ख़ुद को तू दे रहा ये सज़ा.