Ashutosh Upadhyay   (कलम बाबा)
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Joined 25 November 2017


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2 OCT 2020 AT 19:36

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2 OCT 2020 AT 19:31

जब हर कलम जज्बात हो , लिखने में शामो रात हो ,
कूच हो जो दिख सके , हर सुर में जिसको पढ़ सके ,
भाषा न जिसको रोकती , कुर्सी न जिसको टोकती ,
हर सुबह का ध्यान हो , शुक्र की अजान हो ,
जो प्रेम सबमें बाट दे , दर्द को पहचान दे ,
जहाँ भेद ना हो भाव का , जहाँ चीख ना हो चाह का ,
ऐसा लिखो की सह सको , सह के सबको सुन सको ,
फिर लिखना बड़े चाव से , पंक्तियाँ हिसाब से ,
तब कहना जज्बात था , लिखने में शामों रात था ।

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17 SEP 2020 AT 9:50

शर्त इतना ज्यादा होगा , किस्सों का पन्ना सादा होगा ,
सुनने को संगमरमर सा , बुनने को इक जमाना होगा ,

हजार पलों को ख़ाक बनाते ,हक़ जिसपे बस तेरा होगा ,
कितने पहर साथ बिताए ,ऐसा एक याराना होगा ।

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20 AUG 2020 AT 18:01

बैठ एक किनारे पर ,सोच रहा कब गुजरेगा ,
नदिया बहती जाएगी , सूरज धरती चूमेगा ।
सबको सबकी परवाह होगी , द्वेष राग मिट जाएगा ,
फिर बैठेंगे चाय पे एक दिन , चुस्की प्यास बुझाएगा।

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6 JUL 2020 AT 19:21

सुनो कुमारी , बात हमारी , देखो पश्चात्ताप किये ,
प्रेम से बढ़कर दुनिया मे , हमने कई अपराध किये ।
अब ना पालो एक वहम तुम , कि मैं तेरे साथ मरूँ ,
रोज रोज मरने से अच्छा , रण में अपने प्राण धरूँ ।

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25 JUN 2020 AT 11:59

बीच सड़क अगर खड़े हो जाओ ,
तो कितनी खुशी और कितना गम कौन ले के भटक रहा पता नही चलता ।

खुशी तो ठीक है ,
पर छिपे गम का पिटारा अगर आपने खोला तो सब कुछ वहीं पर कचरा हो जाता है ।

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18 JUN 2020 AT 15:29

कई रोज गुजरे , उम्मीद लिये बैठा हूं ,
सच तेरी बातों का बोझ लिए बैठा हूं ।
कट रहे दिन अब , एक बरस जैसे ,
बदकिस्मत हाथ की लकीर लिए बैठा हूँ ।

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11 JUN 2020 AT 15:47

भरी दोपहरी , आग जलन की , मन मे प्रश्न कि इक धारा ,
कैसे आगे बढ़ता जाऊँ , रुक देखूँ अम्बर सारा ।
कितने जतन आज करूँ मैं , किसके पैर पे सर वारूँ ,
ना खुलता पट तेरे घर का , सब कहते हैं बंजारा ।

कहा को जाउँ , कहा रुकु मैं , बस आगे बढ़ता जाउँ ,
शायद आगे एक बस्ती हो , जिसमे खो कर तर जाउँ ।
बीत गए दिन दसक हैं कितने , सुध ना ली जब अपनो ने ,
फिर भी आगे बढ़ता जाता , शायद गुम हो मिल जाउँ ।

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27 MAY 2020 AT 18:01

भोर का वक़्त बनना तुम ,
मैं खुद को स्थिर कर लूंगा ।
बैठ मुस्कुराते रहना तुम ,
मैं खुद में खुद से हस लूंगा ।
समय प्रतीत न होगा इक भी ,
घटा भी तुझको देखेगी ,
सबकी तकनी एक तरफ हो ,
ऐसा तुझे निहारूँगा ।

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18 MAY 2020 AT 16:23

इतनी भी क्या दिलचस्पी लेता खुद में मैं कि इस अँधियारे वाले रात में कुछ लिखता । पर जिंदगी भी मानो कुछ दिनों से चरखे की चाल जैसी हो गई है , धीरे चले तो भी घिसती और तेज चले तो पिट के रह जाती । दिन रात , सुबह शाम , चाय कॉफी , पेन कॉपी , सब के सब बराबर बैठे हैं आँखों के सामने जैसे अब वो भी कुछ कहना चाह रहे हो । और कहना ही नही , बल्कि कुछ पिरोना चाह रहे हो ।

P.S
शांत बैठी है , कुछ बोल नही सकती ।
हरकत तमाम करती है , पर रुक नही सकती ,
जब खोल के देखो इन्हें रुखसार नजरो से ,
अफसोस करती है , पर शर्तें पार नही करती ।
ये जिंदगी है , जिंदा है , साँसें आज भी बाकी हैं ,
एक फूंक मारो, खुल के ये आवाज़ नही करती ।

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