और हमारी गलतियों पर वो कुछ इस तरह नाराज़ हुए जैसे इंसान नहीं भगवान हैं हम ....!! और तोला हमको सही गलत के तराज़ू में क्या भला कोई सामान हैं हम ....!! तुमको भला क्या कहेंगे "ख़ामोश" खुद ,खुद ही की शिकायतों से बहुत परेशान हैं हम ....!!
रोज़ देखती हूं ख़्वाब एक और रोज़ इक ख़्वाब टूट जाता है ll रोज़ ख़्वाब की दुनिया में जी कर रोज़ नए कुछ ख़्वाब सिरहाने रख कर ... दिल की दलील सुन कर आंखों की दहलीज पर ... रोज़ एक ख़्वाब सजता है और रोज़ बिखर जाता है ... यही ख़्वाब बिखर कर और निखर जाता है ... निखरे ख़्वाब को फिर से सजा आंखो में "ख़ामोश" दिल थोड़ा और संवर जाता है ll
तुम्हारा पसंदीदा रंग पहनूं हमेशा या खुद के रंग को छोड़ तुम्हारे ही रंग में रंग जाऊं वो कौन सा रंग पहनूं कि तेरी आंखों को भाऊं या मैं तुम्हें अपने मनचाहे रंग में रंग दूं ? कैसे टूट कर तुम्हें चाहूं कि सिर्फ तुम्हारी हो जाऊं.... यह काला रंग पहन कर तुझमें डूब जाऊं.... या तेरे अंदर कहीं पिघल जाऊं, तेरे लिए कौन सा रंग पहनूं "खामोश" कि तेरी आंखों को भाऊं ......
राज़ इस बोझ का जाने है क्या जो रोज़ थका दिया करता है कुछ मन का चल रहा द्वंद है या कोई तन की परेशानी जाने है क्या जो रोज़ थका दिया करता है दिल पर बढ़ता दवाब है या भावनाओं का उड़ता समंदर जाने है क्या जो रोज़ थका दिया करता है कुछ पा लेने की इच्छाएं हैं बाकी या कुछ खो देने का खेद जाने है क्या जो रोज़ थका दिया करता है.......