Anshul Mishra   (अंशुल)
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Joined 5 February 2018


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9 FEB AT 21:11

तर्क उनके लिए है जिनमें जिज्ञासा हो, जो सत्य जानना चाहते हों;
उनके लिए नहीं जिन्हें पता है वो ग़लत हैं, पर मानना नहीं चाहते।

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13 DEC 2023 AT 23:50

क्या हुआ गर लंबी पतझड़ बिताई,
कुछ दिनों की बारिश आई तो सही।

प्यास से व्याकुल गले को पानी की,
कुछ बूंदेँ छू कर सहलाईं तो सही।

क्या हुआ जो लड़ते तिमिर से रहे,
उम्मीदों की लौ जलाई तो सही।

दुनिया की नज़रों में हारे होंगे हम,
उसूलों पर ज़िंदगी बिताई तो सही।

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20 NOV 2023 AT 20:56


रोया वो, साथ पूरा वतन रोया ।
मनहूस रात, जब ये देश न सोया।

क्या न किया उसने, यह कप उठाने को।
खड़ा था हर पहाड़ से टकराने को।

ग्यारह मोतियों को जोड़ माला बनाया।
हर योद्धा पर पूरा भरोसा जताया।

निजी रिकॉडों कि कोई परवाह न की।
वर्ल्डकप के अलावा कोई चाह न की।

एक-एक कर हर कसौटी को पूरा किया।
हर पैमाने के लिए खुद को बदल लिया।

निष्ठुर नियति में पर कुछ और लिखा था।
निराशा का मंजर जो मैदान पर दिखा था।

क्या चूक रही जो वह अपना स्वप्न खोया।
टूट कर रोया वो, साथ पूरा वतन रोया।

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18 DEC 2022 AT 3:26

वक्त मुझे, मैं वक्त को समझाता रहा।
वक्त गुज़र गया और मैं पछताता रहा।

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4 SEP 2022 AT 2:48

माना कि हारे तेरे इम्तिहानों में,
ना आया तेरी बेड़ियों को तोड़ना।
एक मौका तो और दे ऐ ज़िंदगी!
जो जीतकर न दिखाएं तो बोलना।

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1 JUL 2022 AT 1:01

थक-हार कर हर बार नई तरकीबें आज़मा रहा है।
यह परिंदा अब उड़ान सीखने पिंजरे में जा रहा है।

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15 MAY 2022 AT 16:39

हवाओं में बड़ी झूमती थी जो डाल,
आँधी में उसके सारे फूल झड़ गए।

यादों को जोड़ कर तस्वीरें बनाते थे,
हाथों में कई रंगों के दाग पड़ गए।

ना मंज़िल मिली ना ही मिला रहनुमा,
जो साथ चले थे वो भी बिछड़ गए।

पता है उसे भी कोई चिट्ठी न आएगी,
जिसके कदम डाकखाने को बढ़ गए।

अक्सर ज्ञान की बातें करते हैं वो लोग,
जिनके साथ रह कितने ही बिगड़ गए।

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8 FEB 2022 AT 14:05

ज़रूरी नहीं इज़हार-ए-इश्क में किसी को गुलाब दिया जाए।
शहर में सर्दी बढ़ गई है, चलो नुक्कड़ पर चाय पिया जाए।।— % &

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25 MAY 2021 AT 3:16

शायद वही सही होते हैं,
जो साथ छोड़ जाते हैं।
वफ़ा की खा कर कसमें
सारे वादे तोड़ जाते हैं।

कहानी ही तो थी अपनी,
पूरी होनी ज़रूरी थी क्या ?
हमने तो मांगी थी दुआ में,
ख़ुदा की मंज़ूरी थी क्या ?

हँसना, रोना, ख़्वाब बुनना,
शायद हमारी ही गलती थी,
बिना उनकी सोहबत के,
चाय गले कहाँ उतरती थी।

सबक-ए-ज़िंदगी दे गए जो,
लफ़्ज़ जिनसे सीखता हूँ मैं,
उन्हें शिकायत थी मुझसे,
शायरी क्यों लिखता हूँ मैं।

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3 JUL 2020 AT 2:51

नज़ारों को देखने में, ऐसे भटके मुसाफ़िर,
वे चलते रह गए, मंज़िल पीछे ही छूट गया।

उस शहर में कुछ अक्लमंद लोग आए थे,
जिनकी बातें सुनकर सबका दम घुट गया।

बस्तियाँ जला कर हाथ सेंकते हैं जो लोग,
देखेंगे एक दिन, अपना घर भी लुट गया।

सबने अपनी ख्वाहिशों की दुआएँ मांगी,
किसी ने न पूछा कि तारा क्यों टूट गया।

जीते-जी पुकारता रहा किसी अपने को वह,
रोने वालों का झुंड जिसके जनाज़े में जुट गया।

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