बचपन भी ढंग से कहां जी पाते हैं,
लड़के उम्र से पहले ही बड़े हो जाते हैं,
मन की बातें अक्सर पिता से छिपाते हैं,
मां के आंचल की महक भूल नही पाते हैं,
छीन लेती है मजबूरियां मुस्कान अक्सर ही,
लड़के कहां फिर जी खोल के हंस पाते हैं,
घर छोड़ने का रिवाज़ नहीं था इनका,
मगर हालातो से हो मजबूर घर कहीं पीछे छोड़ आते हैं,
न चाहत न इश्क न कोई शौक रखते हैं,
जिम्मेदारियां थामे जब अपने घर से निकल आते हैं,
नही दिखाते ये अपने आंसू किसी को,
लड़के यूं हीं नहीं जिम्मेदार मर्द कह लाते हैं...!
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