ये जो पल भर को,कभी मुसाफ़िर ठहर जाते हैं
क्या मिरे दर्द का सही मु'आयना वे कर पाते हैं
यूँ बेमतलब की तवक्को वे भला क्यूँ दिखलाते हैं
जब वे तमाशाई जमाने के जेर-ए-असर आते हैं
ये तसल्लियाँ और तंज़-ओ-तश्नी' बेअसर हुए अब सारे
दस्त-ए-रद कर खुद को ही हम बुत-ए-बे-मेहर बनाते हैं
शोख़ी-ओ-शंगी से रहा नहीं हैं कोई भी त'अल्लुक़ अब
किनारा-कशी कर ली हैं ज़िन्दगी के हर शय और रंग से
शफ़्फ़ाफ़ी को भी जो चश्म-ए-सियह से सियाह बताते हैं
हम भी उनके भरम को सही मान उनका शर्फ़ बढ़ाते हैं
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