ऐसे तो नही माना करती मैं किस्मत वगैरा वगैरा में, पर ना जाने अब भरोसा करना सही लगता है। ऐसा भी नहीं की माना है तो अब बिना मुडे सीधे बढ़ती रहूंगी, पर अब इस पतले लकड़ी पे और सामने दिख रही मंज़िल पे, ना जाने क्यों इतना ज़्यादा भरोसा है?!— % &कहने को कह सकते हो तुम भी की प्यार में पड़ने लगी हूं मैं, लेकिन प्यार में पड़ कर उसे एक नाम देना ही सब से ज़रूरी तो नहीं। माना.. माना नाम रखना सही होता है, पर प्यार में पड़ जाना भी तो सोसाइटी नामक इस दुनिया के लिए भी गलत है, नहीं?— % &सुनने को तो बहुत से चीज़ है, आज कल सब बाहरी आवाज़ों के लिए एक रोक लगा कर बस तुम्हें सुनने को जी करता है। पता है, यूं उन बारिश की बूंदों को दिल में लिए घूमना, ऐसे ही कितना अच्छा लगता है ना? आखिरकार, पसंद मेरी है ही अच्छी! नहीं?— % &देखने से पता थोड़ी लगता है किसी को, के इंसान किन किन चीजों से गुज़र के आज सामने मुस्कुरा रहा है। है ना? मुझे भी लगता था, पर फिर कई लोगों से कई मुलाकातों के बाद कई सारे लोगों की हजारों मन गढ़ित बयानों से आज पर्दा उठ सा गया है। पता लग रहा है अब कुछ कुछ, इतना भी मुश्किल नहीं लोगों के "हाव-भाव" समझना। नहीं, मैं आज भी वही नासमझ सी लड़की हूं, जिसे अपने जानने में सब 'इंपोर्टेंट स्टफ' का कुछ कुछ पता है; जो की काफ़ी से भी अधिक काफ़ी है।— % &तुम ना! पूरे बायोलॉजी जैसे हो! दुसरो को समझ आते नहीं, मैं समझने बैठूं तो जल्दी पल्ले पड़ते नहीं, लेकिन पसंद! क्या कहना सब ही की हो!
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