नशा आखिरी उम्मीद
पहले परिभाषा देखते हैं
बाजार में रहने वाले सिगरेट दारु को नशा कहते हैं अगर इसी परिभाषा को और हम चौड़ा करके देखें तो नशा बन जाता है धर्म का, धर्म का जातिवाद का लिंग भेद का रंग भेद का समुदाय का,
अगर हम और ऊंचा करके देखें तो नशा बन जाता है वह कोई भी चीज जो हमें सच से दूर रखती है और हमें अपनी वर्तमान परिस्थितियों में बांधे रखने में मदद करती है और अंदर से जो आत्मा की आवाज उठ रही होती है उसको दबाती है,
फिर नशा आता है आज्ञा का गलत मान्यताओं का संस्कृति का सामाजिकता का,
तुच्छ प्रेम का
जब आम आदमी की आम जिंदगी से कुछ आम से कर नहीं हो पता तो वह आम आदमी नशा करना शुरू कर देता है नशा कुछ भी हो सकता है गलत जीवन का छोटे दिल का दूसरा का कुछ भी, जब उसको पता चल जाता है कि मेरे जीवन में अब कुछ नहीं बचा तब फिर फिर भी सांसों को चलते रहने के लिए जिंदा रहने के लिए नशा करना जरूरी हो जाता है सच से दूर रहना जरूरी हो जाता है जब आला एस ऊर्जा से ज्यादा हो जाती है तब इंसान की जीने की इच्छा करने लगती है और तब इंसान शुरू करता है नशा करना,
दारू पियो चाहे सच पी जाओ,
सिगरेट फूंको या अपनी अंतर आत्मा को ही बेच खाओ,
आंख बंद कर लो चाहे जिस रंग का चश्मा लगाओ,
हमारे दिमाग के साथ समस्या यह है कि हमारी आत्मा बहुत ताकतवर है और वह किसी के सामने नहीं छुट्टी हम कितनी भी गलत जिंदगी जी ले और वही दर्द देती है,
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