कभी कागज़ लिफाफों को यूं टटोलते
किसी पन्ने को सीने से लगा ले
जिसमें लिखी वादे बस वादे रह गए
उन वादों की आगोश में लिपटी
क्या मैं याद आती हूँ ?
कभी बेख़्याली में यूं बैठे बैठे
किसी ख़्याल को करीब से जी ले
जिसमें छुपी मुलाकातें अकेली हो गई
उन मुलाकातों को दूर से निहारती
क्या मैं याद आती हूँ ?
कभी पुरानी तस्वीरों से धूल झाड़ते
किसी तस्वीर पे नज़रें रूक गई
जिसमें छपी यादें आँखें धुला जाए
उन यादों को सीने में समाती
क्या मैं याद आती हूँ ?
कभी मेरी आँखों में झाँकते
किसी मुस्कुराहट भांप ले
जिसमें सुख दुख दोनो पनप रहे
उन मुस्कुराहटों को छुपाती
क्या मैं याद आती हूँ ?
पर
कभी रोका नहीं मुझे जाते
शायद उन वादों में, मुलाकातों में, यादों में, मुस्कुराहटों में
मैं नहीं हूँ
और
शायद मैं याद नहीं आती हुँ।
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