भटकती फिर रही मैं शुकून की तलाश में,
यहां-वहां, जहां-तहां प्यार की तलाश में..!
अकेले खड़ी राहों में, देखते रही नजर..
मिली न शुकून किसी की आंखों में मगर।
वो जिसे अपना कहती.. जो राह में राही बनता,
इस जरा सी उम्र का हमसाथी बनता..!
हूं कहां मैं ढूंढती जो मुझमें है ?
ना मिला यहां ना ही और कहीं..!
खुद से खुद को कहती .. कोई और न सही,
पर खुद से वाकिफ हुए वही काफी , वही सही
कदम साथ चले यही..राह से राह मिले यही,
मिला खुदा मुझमें ही मिला शुकून खुद में ही..!
खुद से साझा करती बातें अपने आप की..
आवारगी में भी बंदिश, ख्वाहिश वीरान की..
वीरान की..!
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