अपना ये उम्मीद-ए-सफर कहीं तो ले जाएगा। नदी, पहाड़, झरना, घर कहीं तो ले जाएगा। यादों को खुद से इसलिए भी दूर नही होने देते। तन्हाई में ये हसीं मंजर कहीं तो ले जायेगा।
हाथों की लकीरों से शिकायत क्यों करें। क़िस्मत मेरे गमों में रिआयत क्यों करे। ये जो मेरे जख्म हैं मुझमें ही रहने दो। इनकी सरेआम भला पंचायत क्यों करें। हर शख्स यहां भटक रहा है बेखुदी में। कोई किसी और को हिदायत क्यों करे। एक उम्र गुजार दी हमने काफीराने में। अब कोई खुदा हम पर इनायत क्यों करे। हम रफ्ता - रफ्ता लुटें हैं इस शहर में। जिसे खबर है वो भला हिकायत क्यों करे।
हाथों की लकीरों से शिकायत क्यों करें। क़िस्मत मेरे गमों में रियायत क्यों करे। ये जो मेरे जख्म हैं मुझमें ही रहने दो। इनकी सरेआम भला पंचायत क्यों करें। एक उम्र गुजार दी हमने काफीराने में। अब कोई खुदा हम पर इनायत क्यों करे।
हर रोज़ दिल से एक जनाजा- ए- आरजू निकलता है। हम जब भी लिखते है तो कलम से लहू निकलता है। एक सीने में दफन उम्मीद रह रह कर उफन पड़ती है। जब जब मेरे नजरों के सामने से तू निकलता है। हम इश्क वालों से बेहतर भला किसे पता होगा। कैसे दिल में दर्द बढ़ता है और सुकू निकलता है। हम जिंदा लाशों से पूछो मरने का मंजर। कैसे तड़प तड़प कर जिस्म से रूह लिकलता है।
किताबों ने हमेसा झूठ ही कहा है । जब भी मैंने पूछा ज़िंदगी क्या है । कभी उसने बोला कबीर का दोहा । कभी उसने बोला ठाकुर का कुआं है । कभी उसने सुनाई पारियों की कहानी। तो कभी बोला महादेवी का घीसा है।