Aman Preet   (अमन प्रीत)
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What?
Joined 29 August 2019


What?
Joined 29 August 2019
13 JUN 2023 AT 22:08

पहले कौम ए नज़ाकत में मसरूफ था,
कोई जुर्म नहीं, कोई इल्म नहीं,
केवल मौन और विषम वक्त।
उसका परिचित कोई नही,
और सब उससे परिचित थें,
उसके हित में कोई नही,
और सब ही उसके हित से थें।
फिर किसी बेगैरत ने उजाड़ दिया,
अब अस्तित्व बस बिखरा फूल है।

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2 JUL 2021 AT 20:53

My vision out of oculi,
Struck by my bars and so.
Blowing bare with western wind,
Screeching my scars and so.

I fled with my whites and blacks,
Ran away to the crimson sky.
Touched myself in a mirror; Tiffany.
Inhaling the stars and so.

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1 JUN 2021 AT 19:59

Warn me and soon,
Curse me with the boon.
In the black of oblivion,
Tag me as loon.

Let me merge in your colours,
And gasp for the air.
When those cotton clouds;
Will end my despair.

I'll be you.

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17 MAY 2021 AT 12:10

Peace is the best metaphysical piece of art.

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5 MAY 2021 AT 19:59

अब ऐसा भी क्या नया हो गया, होता तो था। होते ही रहता है। होता रहेगा। आज रंग कुछ और है, कल कुछ और होगा। रंगो में बहुत ताकत है, लोग तो ऐसा ही समझते है। मै कहता हूं कमजोर होते हैं रंग, बांटते हैं लेकिन कमजोर होते हैं। और कई ज्यादा कमज़ोर होते हैं उससे टूटने वाले। तुम सोच रहे होगे अपने ज्ञान के बारे में, सोच के बारे में, तथ्यों के बारे में लेकिन अगर एक ओर जा चुके हो, सही और गलत के परे बस अपने दायरे को बचा कर अपने आप को सही सिद्ध कर रहे हो, तो हां कायर और कमजोर हो तुम।

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29 APR 2021 AT 18:12

कितना अच्छा लगता है ना मधुर संगीत, शांति से बैठ किसी प्रेमगीत को सुनना, उसे गुनगुनाना। अप्रतिम अनुभव। अब आंखे खोलो, तुम्हारा प्रेमगीत समाप्त होता है। कथन यह है कि तुम्हारी ये सभ्यता प्रेम जानती भी है। एक ऐसी सभ्यता जो खोंखले धर्म और युद्ध के निचले स्तर पे टिकी है वो किसी भाव के चरम बिंदु को समझे यह यथार्थ के परे है। यह सभ्यता अपने उस मोड़ पर है जो केवल तीन स्तंभ पे है; काल कलम और कालिमा।
काल से बद्ध, कलम से मुग्ध और कालिमा में गुम।
भले ही तीनों प्रेम को तुलना में कमजोर हो लेकिन कम-स-कम अस्तित्व में तो है।
अब तुम प्रेम की तलाश कर सकते हो। तुम चलोगे; चलोगे और फिर ठहर जाओगे। थक कर, झुंझला कर, हार मान कर, काल के द्वारा पराजित होकर बैठ जाओगे। फिर तुम्हारे सामने होगा एक कागज का टुकड़ा जिसपे तुम या तो विलाप करोगे या फिर प्रेम को पाने का मिथ्य कथन। और तुम्हारे पास तब केवल कलम होगा। गौर करो केवल कलम, प्रेम नही। इस काल-कलम को पाकर और पार कर तुम जीवन के सबसे सत्य रूप को देखोगे। कुछ ऐसा देखोगे जो तुम्हे नही दिखेगा। कालिमा। और अब तुम्हे लगेगा ये अंत है। काल थम जाएगा, कलम टूट जायेगा, और एक आयाम होगा, कालिमा से पूर्ण। एक अगोचर स्तिथि।
फिर शायद तुम्हे एहसास हो, एक बेहद ही आसान युक्ति है गोचर रहने की; एक कथित काव्य है: काल, कलम और कालिमा।

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25 MAR 2021 AT 22:01

यथार्थ

ज्यों माटी के रंग लाल भ्यो,
त्यों श्वेत रंग भी काल भ्यो।
ज्यों लिखत स्याही श्याम रंग,
नभ अपि शकल विकराल भ्यो।

नदी काट जो अपना तीर बहे,
भोगे दनुज और पीर सहे।
जब होए वह्नि श्मशान उग्र,
क्यों सर्वस्व द्वार पर भीड़ रहे?

नीड़ छोड़, खग गया कहां?
ढूंढे तू जग में हया कहां?
शंकित जीवन वर्ण में,
मन आशंकित तेरा भया कहां?

अस्तित्व के धूमिल छाये में,
है तेरा स्वार्थ क्या?
ख़ाक के पुंज में,
है तेरा यथार्थ क्या?

तू कौन है?

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11 MAR 2021 AT 1:47

हम रंगो से बने है। इसे समझना उतना ही आसान है जितना इस पंक्ती को पढ़ना। यूं देखे तो घड़ी के कांटे हमारे हर रंग को हकीक़त में प्रतिबिंबित करते है। कभी प्रसन्नता से भरा हरा रंग, कभी क्रोध और अहंकार का लाल, कभी आज़ादी का नीला, तो कभी संपूर्ण जीवन को श्वेत के सार में देखते हैं। इस पूरे सफ़र में ऐसे कई रंग आते हैं, और हम कुछ खास अपने स्मृतियों में समेट लेते है। चलते चलते एक दिन अंत तक पहुंचते है। अंत का रंग क्या है?

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9 MAR 2021 AT 13:40

यह सभ्यता कलम या लेखनी को महत्ता नही देती, यह महत्ता देती है लिखावट को। अगर लिखावट अच्छी हो तो ये आपको जरूर स्वीकार करेगी। यह यथार्थ है।

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1 MAR 2021 AT 20:13

मसलहते समझ नहीं आती हुकूमत की,
फ़ायदा है या फ़ायदे हैं।

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