वो जा चुका मैं गर्द-ए-सफ़र देख रहा हूं।
लुटते हुए ख़्वाहिश का नगर देख रहा हूं।
इक शोर सा बरपा है कहीं नफ़्स-बशर में,
बढ़ते हुए सन्नाटे इधर देख रहा हूं।
मैं अब भी उसी ख़्वाब की दहलीज़ पे रुक कर
जिस राह से वो गुज़रा उधर देख रहा हूं!
महदूद मेरे ख़्वाबों-ख़यालों में नहीं तू,
हर शय है तेरे ज़ेर-ए-असर देख रहा हूं।
देखा है बहुत हर्फ़-हुनर बज़्म-ए-सुख़न में,
लोगों का बस अब ज़र्फ़-मेहर देख रहा हूं।
बाज़ार भी रौनक भी ख़रीदार बहुत हैं
इस शहर में है कोई बशर देख रहा हूं!
महफ़िल में कोई किससे है कब कैसे मुख़ातिब!
है किसकी तरफ़ किसकी नज़र देख रहा हूं!
शायद वो परिंदे कभी उड़ते हुए आए,
मशरिक़ कभी मग़रिब कभी घर देख रहा हूं!
221 1221 1221 122
-