Aliem U. Khan   (Aliem)
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Joined 11 April 2018


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7 FEB AT 22:28

ख़्वाबों के पीछे दौड़ते फिरते हुए "अलीम"
इक निस्फ़ ज़िंदगी का सफ़र यूं हुआ तमाम।

خوابوں کے پیچھے دوڑتے پھرتے ہوئے علیم
ایک نصف زندگی کا سفر یوں ہوا تمام

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26 JAN AT 16:27

अगर ये दिन भी अंधेरे की तरह काला हुआ?
जो नूर-ए-सुब,ह पे भी ज़ुल्मतों का ताला हुआ?
اگر یہ دن بھی اندھیرے کی طرح کالا ہوا
جو نور صبح پہ بھی ظلمتوں کا تالا ہوا

किसे ख़बर है ये सूरज भी स्याह निकले कल,
करोगे क्या जो दिये से भी ना उजाला हुआ?
کسی خبر ہے یہ سورج بھی سیاہ نکلے کل
کرو گے کیا جو دیے سے بھی نہ اجالا ہوا

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19 JAN AT 21:28

जितने हंसीं गुलाब थे महफ़िल में सज गए,
हम सायादार पेड़ सदा धूप में रहे!

جتنے حسیں گلاب تھے محفل میں سج گئے
ہم سایہ دار پیڑ سدا دھوپ میں رہے

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15 JAN AT 14:14

युं शाख़ शाख़ पे महकेंगे हर्फ़ गुल बनकर,
हर एक शय में ज़माना हमें ही ढूंढेगा!

یوں شاخ شاخ پہ مہکیں گے حرف گل بن کر
ہر ایک شے میں زمانہ ہمیں ہی ڈھونڈے گا

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12 JAN AT 18:07

दयार-ए-यार में न दिल लगे अगर तो क्या करुं!
जो दिल में हद से वहशतें बढ़े अगर तो क्या करुं!

किसी की याद के वो सारे सिलसिले तो थम गये,
कभी वो राह में कहीं मिले अगर तो क्या करुं!

जलाया उम्र भर चराग़-ए-दिल को हमने किस क़दर!
अंधेरे और ज़्यादा हो घने अगर तो क्या करुं!

बस इक ख़ुशी के वास्ते फिरूं कहां मैं दर-बदर!
उसी के सिम्त हर डगर मुड़े अगर तो क्या करुं!

बिछड़ रहे हैं लोग रफ़्ता-रफ़्ता इस सफ़र में अब,
वो थामकर के हाथ न चले अगर तो क्या करुं!

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8 JAN AT 19:02

चमकते आंसू के क़तरे दामन पे गिर के ऐसे बिखर रहे हैं,
किसी की आंखों की कहकशां के सितारे हैं ये जो मर रहे हैं!
कोई न समझा ये दिल के पंछी ख़मोश क्यूं हैं उदास क्यूं हैं,
सब अपनी बातों से फिर रहे हैं जो वादों से हम मुकर रहे हैं।

چمکتے آنسو کے قطرے دامن پہ گر کے ایسے بکھر رہے ہیں
کسی کی آنکھوں کی کہکشاں کے ستارے ہیں یہ جو مر رہے ہیں
کوئی نہ سمجھا یہ دل کی پنچھی خموش کیوں ہیں اداس کیوں
سب اپنی باتوں سے پھر رہے ہیں جو وعدوں سے مکر رہے ہیں

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29 MAY 2023 AT 12:53

अब नींद से जागो उठो मंज़र ज़रा देखो,
किस सिम्त लिए जा रहा रहबर ज़रा देखो!
آپ نیند سے جاگو اٹھو منظر زرا دیکھو
کس سمت لئے جا رہا رہبر ذرا دیکھو

ये महल-ओ-इमारात बड़े घर ज़रा देखो!
फिर गांव में जाकर कभी छप्पर ज़रा देखो!
یہ محل امارات بڑے گھر ذرا دیکھو
پھر گاؤں میں جاکر کبھی چھت پر ذرا دیکھو

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4 MAY 2023 AT 11:22


वो जा चुका मैं गर्द-ए-सफ़र देख रहा हूं।
लुटते हुए ख़्वाहिश का नगर देख रहा हूं।

इक शोर सा बरपा है कहीं नफ़्स-बशर में,
बढ़ते हुए सन्नाटे इधर देख रहा हूं।

मैं अब भी उसी ख़्वाब की दहलीज़ पे रुक कर
जिस राह से वो गुज़रा उधर देख रहा हूं!

महदूद मेरे ख़्वाबों-ख़यालों में नहीं तू,
हर शय है तेरे ज़ेर-ए-असर देख रहा हूं।

देखा है बहुत हर्फ़-हुनर बज़्म-ए-सुख़न में,
लोगों का बस अब ज़र्फ़-मेहर देख रहा हूं।

बाज़ार भी रौनक भी ख़रीदार बहुत हैं
इस शहर में है कोई बशर देख रहा हूं!

महफ़िल में कोई किससे है कब कैसे मुख़ातिब!
है किसकी तरफ़ किसकी नज़र देख रहा हूं!

शायद वो परिंदे कभी उड़ते हुए आए,
मशरिक़ कभी मग़रिब कभी घर देख रहा हूं!
221 1221 1221 122

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14 FEB 2023 AT 8:03

कोई उम्मीद कोई आस, दिलासा न दिया,
लौटकर आने का फिर हमने भी वादा न किया!

کوئی امید کوئی آس دلاسہ نہ دیا
لوٹ کر انے کا پھر ہم نے بھی وادہ نہ کیا

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13 FEB 2023 AT 22:30

ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़ कभी रुख़सार को बोसा करते!
तुम मयस्सर जो हमें होते तो क्या क्या करते !

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