चाहतों के रंग
इमरोज़ इस नवप्रभात पर फिर प्रीत का पल्लव फूटा है,
चाहतों के रंग का फिर जीवन में यह प्रादुर्भाव अनूठा है।
नफ़रत की चोट अनेक खाकर भी प्यार का अतिरेक है,
मन-दर्पण में अंकित छवि के दर्शन से मिले ये सेक है।
सूखाग्रस्त जमीन में चाहतों का रंग रानी बिखेर गई है,
मुझ बेहोश को जगाने की ख़ातिर मना देर-सबेर गई है।
चाहतें सुर्ख है, मेहँदी की सुर्खी भी इसबार ख़ूब रुची है,
रातों के उपवन में, मेरे लिए तेरी चाहत की धूप बची है।
उजड़े का पुनर्वास, बहार में रंग का पुनर्स्थापन होता है,
इंसान के कर्म के चयन से, इश्क़ का अधिमान होता है।
सिर्फ़ मनोनयन से अधिकार नहीं मिलता चाहत बोने का,
रंग छूटे चाहतों का,अंदेशा अतिरेक हो रहे सब खोने का।
चाहतों के रंग हज़ार, प्यार की बह रही लोमहर्षक बयार,
तुझे सोचने मात्र से, शहर-ए-क़ल्ब में आई मिलन-शरार।
फरियाद है मेरी अपनी रब से, चाहतों के रंग की जद से,
'शौक़' में चाहतों के रंग का आर्दुभाव,है रानी की मद से।
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