Ajey Mehta (अबोध)   (ajey mehta)
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Joined 12 October 2018


Joined 12 October 2018

स्वयं से पर होना
मुक्ति ही है ना?
मैं मुक्त होना चाहती हूँ
किंतु
उसे मुझमें बो कर

याद है तुम्हें...?
तुम्हारा मुझे भिक्षुणी कहकर
टेरना
मैं जानती हूँ अब भिक्षा का अर्थ
कल मिला था
एक मूक भिक्षु
उसने मेरी आत्मा को कपड़ों से अलग किया
और कहा...
तुम्हारी आत्मा पर
प्रेम के छाले हैं!
मैने कहा,तो क्या
बीज बन गिरती रहूँ ?
धरती में
उगती रहूँगी
बार-बार
बन कर पूरा वृक्ष
मुक्ति की कामना से दूर
कोसों दूर।
और वो हस कर निकल पड़ा,
अपनी मुक्ति के लिए...

अजेय महेता

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अगर मैं मोम से बनी हूं...
तो,
कौन कतरा कतरा पिघलाएगा?

अबोध

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सुनो ना

मैं जानना चाहती हूं

कैसा होता होगा स्वपन का सहवास?

जैसे हमारे बीच "मिलते है" कह कर चले जाने का दरवाजा होगा ?
या
कोई शर्तों की दीवाल होगी?


अजेय

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वृक्ष से गिरे हुवे पत्तों में...

डूबते हुवे कितने सूरज की यादें सिमटी होगी।

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तुम नदी की तरह
बहते हो मुझमें.
मैं डूबती हूँ उसके एकांत में
जहाँ डसता है निराश्रित साँप
कई बार,
फिर विष के कालचक्र में
ढूँढती हूं
समाधिस्थ मौन को
जिसे तराशकर तुमने बनाया है मोहक
सुख की तिथियाँ
फिर तैरती है
देह की आकाश-गंगा में
फिर जपती हूं
तुम्हारा नाम
श्वेत कमल धरे
बहते हुए निशुल्क मोक्ष के लिए...

अजेय महेता

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अशुद्धता से अछूता
एक कमल का फूल
मेरी परछाई के हाथ मे दे दूं तो?
 

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ये आंखे लड़ने से
कजर क्यों फैल जाता है?

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उसने बस एक गाना मुझसे गवाया,

जाने कितनी शामों को उकेरा...

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कंठस्थ शब्दों से रची गयी कविताएं मुझे समझ मे नही आती
कुछ बैंजनी ऐंठन शब्द दे देना
जुड़े में सजा लुँगी...


आप उसे गजरा कह देना,

मैं उसे

नीलकंठका वो नीले रंग का गला मान लूँगी।

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संमोहन के बिना समर्पण अशक्य है।

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