स्वयं से पर होना
मुक्ति ही है ना?
मैं मुक्त होना चाहती हूँ
किंतु
उसे मुझमें बो कर
याद है तुम्हें...?
तुम्हारा मुझे भिक्षुणी कहकर
टेरना
मैं जानती हूँ अब भिक्षा का अर्थ
कल मिला था
एक मूक भिक्षु
उसने मेरी आत्मा को कपड़ों से अलग किया
और कहा...
तुम्हारी आत्मा पर
प्रेम के छाले हैं!
मैने कहा,तो क्या
बीज बन गिरती रहूँ ?
धरती में
उगती रहूँगी
बार-बार
बन कर पूरा वृक्ष
मुक्ति की कामना से दूर
कोसों दूर।
और वो हस कर निकल पड़ा,
अपनी मुक्ति के लिए...
अजेय महेता
-