है अंत ही आरम्भ अगर, तो अंत से में क्यूँ डरूँ....
है पाप किसी के लिए पुण्य अगर, और पुण्य किसी के लिए पाप है,
तो इस पुण्य और पाप के बीच में, खुद में मैं क्यों लडूं...
सच और झूठ के इस जाल में, खुद में मैं क्यों जलूँ....
नियम बनाये समाज ने, बंधन में हैं हमें बांधते...
जिंदगी परोसते है हमें, कुछ शर्तों के मोल पर...
हैं ये जकड़े मुझे, मेरी आत्मा को कुरेदते,
मेरी आज़ादियों को छिनते, आवाज़ को मेरी कुचलते,
तो क्यों न आज मैं.... इन सारे चक्रव्यूहों को तोड़ दूं,
अपने अंदर के तपन से....बेमतलब के नियमों को तोड़ दूं,
अंदर बसे तूफान को.... क्यों न में आज छोड़ दूं....
है अंत ही आरम्भ अगर, तो अंत से में क्यों डरूँ...
है अंत ही आरम्भ अगर....
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