तू सुलगती आग है, मैं उसमें जलती लकड़ी सही, तू अंधेरी घटा का चादर ओढ़े, मैं उसमें टिमटिमाता तारा सही, तू उपन्यासकार है, मैं उस उपन्यास का अहम किरदार सही, ए ज़िंदगी, तू खुद ही खेल रचाए किस्मत का, मैं उस खेल का जीता खिलाड़ी ही सही।
नहीं निभाना वो रिश्ता हमें जिसमें शक की दीवार इश्क़ की मीनार से ऊंची हो नहीं जाना उस गली में दोबारा हमें जहां इज्ज़त से ज़्यादा हमारी बदनामी हो अरसा हो गया तुम्हारी यादों की कफ़न को दफनाए हुए मत बुलाना दोबारा उस आशियाने में हमें जहाँ हमसे ज़्यादा हमारे रकीब की हिस्सेदारी हो
निकला हूॅं मैं किसी ऐसे शहर की तलाश में, जहाॅं अपनेपन की हवा हो, जिन वादियों में अपनी एक पहचान हो। निकला हूॅं मैं किसी ऐसे गुलशन की तलाश में, जहाॅं हर एक गुल में तेरी यादें हो, जिसकी हर एक कली में सिर्फ तेरा एहसास हो।
गोताखोर बनकर इश्क़-ए-दरिया से तेरे लिए जज़्बातों की मोतियाॅं लाया हूॅं, रात का नूर चुराकर तेरे लिए आस्था इश्क़ का चाॅंद लाया हूॅं, जब देखे तू चेहरा अपना तो वो शीशा भी शर्मा जाए, ऐसी गुलफ़ाम काली के लिए मैं गुलशन से उसका जमाल खरीद लाया हूॅं
शाम लिए जाती है मुझको यूं अपनी तलाश में अक्सर, रात रोक देती है मुझको इस खोज में बाधा बनकर। देखो लौटे पंछी घोंसले में अपने, लौटा ग्वाला अपनी गाय लेकर, लौटे पिता घर को अपने दिनभर की थकान लेकर। कहीं से आई आवाज ॐ की, कहीं सुनाई देती रूदन, कहीं किलकारी लगाए बच्चा, तो कहीं सन्नाटा बिखेरे आंगन। फिर अंधेरी घटा छाने लगी है, अपनी व्यथा दिखाकर ये शाम की लाल घटा भी, हमें अलविदा कह चली है। -आस्था पुजारी
वक्त गुज़रे गर तेरी बाहों में, गुज़र जाने दो बीतें गर साल तेरी आगोश में, बीत जाने दो मुक्कमल न हुआ इश्क़ हमारा तो गीला न करना मयस्सर गर इश्क़ हो इन रातों में, हमें इसमे डूब जाने दो
तेरा यूं हमसे नज़रें चुराना, हमें गवारा नहीं तेरा यूं हर बात पर हमसे खफा हो जाना, हमें गवारा नहीं छुपाती हो तुम मुझे सबकी नजरों से मगर तेरा यूं शर्म-ओ-हया के डर से छिपाना, हमें गवारा नहीं
इश्क़ के राग अलापकर बेवफाई का तोहफा दिया उसने मदिरा कहकर ज़हर का प्याला पिलाया उसने सुने थे किस्से बेवफाई के हमने बहुत रकीब के आगोश में खोकर आज हमें शब ए हिज़्र से रूबरू कराया उसने