रात थी अन्धेरा था आँखे बंद थी पर सो नही पाया खोल कर दिल अपना कभी कुछ बोल भी नही पाया बहुत कुछ था अंदर जो आतुर था नम आँखो से बाहर आने को पर लड़का था साहब इसलिये ज़माने के सामने रो भी नही पाया
लबो से पहले माथे को चूम जाता है कमियाँ सारी छुपाकर इलाही मुझे बनाता है यूँ तो बहुत सी आँखे है जिस्म से गुजरती हुई वो खास है जो बिन छुए रूह मे उतर जाता है
सवेरे ने आ कर घने कोहरे को समेटा है धरती ने फूलो की ओढनी को लपेटा है हवाओ ने फिज़ाओ मे इत्र को भी फेंका है देख कर तडप मेरी समझा नही यार मेरा इश्क़ का मौसम है और वो दूर बैठा है...
मै बिखरा था मै फिसला था, संभला नही मै टूट गया दिल भी टूटा सुकून भी रूठा, साथ जो तेरा छूट गया कुछ मिले मुसाफिर राह मे, फिर उम्मीद जगा कर बैठ गया पर समझा ना मुझे तुझसा कोई, सपने जले चुप मै हो गया फूल भी सारे शूल बने, ना निखर सका मै सिमट गया तू गया छोड गया कुछ ऐसे, संग ख्वाब भी सारे लूट गया
दीद हुआ उनका कुछ इस कदर कयामत ढा रहे थे आसमां के चाँद से भी ज्यादा खूबसुरत नज़र आ रहे थे महफिल मे सारे ज़हां की नजरें थी यार पर मेरे फिर भी वो मुझमे ही मशगूल अपनी मोहब्बत निभा रहे थे❤
आरम्भ भी तू है अन्त भी तू, तू मेरी सोच की सीमा है है तू दुआ अरदास भी तू, तू ही इबादत का जुम्मा है साज़ भी तू आवाज़ भी तू, तू मेरे ख्वाबो का नगमा है है मीरा जैसा प्रेम भी तू, तू मज़हब-ए-इश्क़ का कलमा है