...   (@अनाम)
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Joined 12 February 2019


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9 NOV 2022 AT 23:14

आख़िरी ख़त

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13 AUG 2020 AT 10:14

हर सू दिखने वाला शख़्स अनजाना लगता है,
मगर उनका ग़म मुझे जाना पहचाना लगता है।

ढूँढता फिरता हूँ दुनिया में एक लम्हा फुर्सत का,
ख़ुद की मसरूफ़ियत महज़ एक बहाना लगता है।

किसी ने पूछा मुझसे ग़म छुपाने की अदाकारी का राज़,
मैंने उनसे कहा कि साहब इसमें तो एक ज़माना लगता है ।

घुट-घुट कर ही सही जी तो रहा है ज़िंदगी,
हर आदमी इस ज़िंदगी का दीवाना लगता है।

ऐ जिंदगी ! हाँ माना कि मैं सिफ़र ही सही,
तू कोई पोथी या कोई अफ़साना लगता है।

मुझसे दूर जाने की हसरतें लिए बैठा है वो,
एक मैं ही हूँ जिसे उसका शहर ठिकाना लगता है।

अक्सर शायरी में शामिल है तकलीफें दूसरों की,
मुझे हर आदमी का जख़्म अपना लगता है।

बार-बार शम्मा के नूर से चला जाता हूँ उसकी तरफ़,
अनाम पतंगा है जिसे वो शरर ही आशियाना लगता है।

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22 OCT 2021 AT 23:06

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14 MAR 2021 AT 18:56

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23 SEP 2020 AT 21:42

एक अरसे बाद...

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23 AUG 2020 AT 14:09

जब तुम गडाए रहते हो नज़र,
चमचमाती हुई स्क्रीन पर।

तुम्हारी आँखें व्यस्त रहती हैं किसी चर्चा में ,
तुम्हारे कान मेरी आवाज़ नहीं सुन पाते ।

जाने कौन सी धुन है जिसमें तुम, मगन रहते हो,
हमेशा दिन से रात, रात से दिन तक।

मेरी ध्वनि की आवृत्ति बहुत कम हो गई है,
मेरी उपस्थिति शून्य के समान है तुम्हारे लिए।

जिस पर तुम टकटकी लगाए देखते रहते हो,
वो मुझसे अधिक महत्वपूर्ण हो गया है ।

तुम्हारे बावजूद मैं अकेली हूँ,
ये घर अब काटने को दौड़ता है।

तुम्हारे और मेरे मध्य ही तो संवादों की अल्पता है ,
तो क्या हुआ मैंने दीवारों से बातें करना शुरू कर दिया है।

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23 AUG 2020 AT 9:48

मौन मात्र मौन नहीं है
उसमें छिपे हैं असंख्य शब्द
किसी गर्त में जाने से स्वयं को रोकते हुए
अपने अस्तित्व को ढूँढते हुए ।
ब्रह्मांड के किसी सूक्ष्म कण पर ,
कदाचित उनका स्थान निर्धारित किया गया है।
किसी विध्वंसक विस्फोटक की भाँति
धीमे-धीमे मौन और क्रोध
की आँच पर पकते हैं
अणु या परमाणु के रूप में कुछ शब्द।

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21 AUG 2020 AT 15:00

किताबों के पन्नों पर अल्फ़ाज़ नहीं अँगार लिख दूँ,
तू इजाज़त दे अगर मोहब्बत का अख़बार लिख दूँ।

समेट कर कुछ फुर्सत का वक्त अपनी कलम में,
अनंत तक जाकर अपने मन का विस्तार लिख दूँ।

कभी किसी मोड़ पर कोई पूछ ले मेरी जात क्या है,
हिंदुस्तानी हूँ अपनी कलम से यह बार-बार लिख दूँ ।

दबाए , छुपाए या बाँध भी दे कोई बेड़ियों में मुझको,
तोड़कर हर बंधन मैं अपना विद्रोही विचार लिख दूँ।

तुम चाहे तमाम कोशिशें करना रोकने की अनाम को,
बनाकर खून को स्याही इंकलाबी गीत हज़ार लिख दूँ।

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21 AUG 2020 AT 11:53

सुनो,
एक खत लिख रही हूँ आज तुम्हें ,जो शायद बरसों पहले लिखा जाना चाहिए था। हाँ मानती हूँ कि अब बहुत देर हो गई है और इस खत की भाषा भी बदल चुकी है। मगर अंतिम बार कुछ लिखना चाहती हूँ। आज फुर्सत के समय में पुरानी अलमारी साफ कर रही थी तो वहाँ मिली पुरानी डायरी के पन्नों के अंदर कुछ सूखे गुलाब और पुराने पत्रों को देखा।जो किसी गुज़री दास्तान की याद दिलाते हैं।यूँ तो मन नहीं माना फिर भी हिम्मत कर उठा रही हूँ कलम। मैं खुश हूँ अपनी नई दुनिया में , मगर एक हूक उठती है पुराने दिनों को याद करते हुए। अब जबकि मैं अपने वर्तमान में खुश रहना चाहती हूँ तो मैंने सारे पत्रों और डायरी को तिलांजलि देकर और तुम्हें ये पत्र लिखकर निभा दी है आख़िरी रस्म। ताकि फिर किसी हिचकी पर मुझे तुम्हारा ख़याल ना आए, ताकि फिर किसी बारिश में तन को भिगा कर मेरा मन सूखा ना रह जाए , ताकि फिर किसी जन्म मैं प्रेम करने की धृष्टता ना कर पाऊँ।

अब शायद किसी और की
अनाम

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21 AUG 2020 AT 11:01

हाथ लिए पियानो तो कोई बजा रहा गिटार,
देखो आज तीन मनुष्यों ने लिया प्रेत अवतार।

गले नरमुंड माल, सजाते हैं अर्धरात्रि महफ़िल,
सुनाकर 'धुन' कोई प्रेम की चुराते हैं सबका दिल।

रातों के घनघोर अंधेरे में चमकती खुशियों की 'किरण' ,
कभी लाल सेब तो कभी 'अनाम' पुष्पों का कर वरण ।

ये महफ़िल मचाती है अर्धरात्रि में धूम,
अल सुबह उठकर yq वाले भी जाते झूम।

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