Vidhi   (Pratima)
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I work as a mental health counselor.

(I'm from Gallifrey.)
Joined 20 February 2017


I work as a mental health counselor.

(I'm from Gallifrey.)
Joined 20 February 2017
9 SEP 2023 AT 4:33

पूंजीवाद एक बीमारी है
लेकिन जातिवाद तो महामारी है
फेमिनिज्म कड़वी दवाई है
जिसे फ्यूडलिज्म की शीशी में भरकर
बाज़ार ने मुंहमांगी बोली लगाई है
जिसकी कम्युनिज्म ने दलाली खाई है
डेमोक्रेसी के शोर में
इक्वालिटी, जस्टिस और फ्रीडम की मिठाई
बस ठेकेदारों ने खाई है

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3 JUL 2023 AT 0:37

मरने से पहले कुछ हो न हो... माफ़ीनामा ज़रूर लिखना चाहिए. आप जिनके साथ गलत रहे, उसे आप अगर अपने आखिरी वक्त में भी स्वीकार न कर सके तो फिर वो अंतिम विदाई नहीं है.. जीवन के बाकी अध्यायों में कई सवाल भले अधूरे रह जाएं पर आखिरी अध्याय में उन सवालों के जवाब ढूंढ़ लेने चाहिए.

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31 OCT 2022 AT 23:04

एक मां की दो बेटियां थीं. एक थी संस्कारी और दूसरी थी विद्रोही. मां ने सोचा कि विरासत में उन्हें क्या दूं? एक तरफ़ मां के हज़ार टूटे सपने थे और दूसरी तरफ़ था उसके जीवन भर के अनुभवों का निचोड़. तो बहुत सोचने-विचारने के बाद मां एक निष्कर्ष पर पहुंची. एक की झोली में उसने लक्ष्मी रखी और दूसरे को दी सरस्वती. यानी एक ने पाया उन सपनों के पूरा होने का वरदान और दूसरे ने पाया अनमोल ज्ञान.

मां को पितृसत्ता से बैर नहीं बस अपनी क़िस्मत से रंज था. सारी उम्र पति की मुहब्बत को तरसती रहीं. इसलिए पहली को दिया पति प्रेम का आशीर्वाद और दूसरी से कहा कि तुम मोहब्बत को भूल जाओ और पहले सहनशील होना सीख जाओ. स्त्री हो तो स्त्री को दुःख पाना ही होगा, मोहब्बत पाने के लिए खुद को पददलित करना ही होगा.

कुछ इस तरह मां ने अपना कर्त्तव्य पूरा किया. पितृसत्ता की चौकीदारी के लिए अपनी एक बेटी को थानेदार नियुक्त किया और दूसरी को उसका मुजरिम घोषित किया. अब मां भी संतुष्ट है और दोनों बेटियां अपनी अपनी जिंदगियों में ठीक-ठाक व्यस्त हैं. बड़ी बेटी अपनी भूमिका के साथ बेहद खुश है और दूसरी पितृसत्ता से लड़-लड़कर बुरी तरह पस्त है. और पितृसत्ता.. वो तो मदमस्त है.

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31 OCT 2022 AT 20:15

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28 OCT 2022 AT 8:35

मैंने शरद को अट्ठाईस बार देखा है
उनमें से सत्ताईस तो
बसंत तुम्हारे इंतज़ार में गुजार दिये
शायद उन्तीसवें में इस बात को समझ पाऊँ
नमी छिपाने से कुछ भी हासिल नहीं होता है
सुर्ख फूलों को कभी कब्र में खिलते देखा है?
सर्द मौसम पिघलेंगे तो मूसलधार हो जाएंगे
क्यों ना हर नमी को बर्फ बनने से पहले थाम लें
अक्टूबर की शाम को थोड़ा बरस जाएं

(पांच साल पुरानी कुछ पंक्तियां)

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25 OCT 2022 AT 2:37

क्या कभी ऐसा हो सकता है कि
जिसके जीवन की बहुत सी कहानियां
अधूरी रह गई हों, वो अपनी कलम
उठाए और उन कहानियों को अपनी
इच्छा मुताबिक उसके अंजाम तक पहुंचाए?
धुंध भरी आंखों में सुंदर सपने तैरते हों
और जिन हाथों को कभी किसी ने
न थामा हो, वो अपनी कलम से
सुंदर सपनों का संसार बुन दे?
अगर ऐसा हो जाए तो दुनिया
दीवाना तो नहीं कह देगी न?

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25 OCT 2022 AT 2:21

मैं चाहूँ भी तो प से प्रेम नहीं लिख पाती
पेट का सवाल मुँह बायें खड़ा हो जाता है
म से मोहब्बत नहीं,
सड़कों पे मारे मारे फिरते बेघरों का सवाल आता है
कुछ भी कहो मकान ही लिखा जाता है
इ से इंक़लाब ही याद करूँगी
इश्क़ और ईश्वर की अफ़ीम नहीं
क्योंकि अभी अ से आज़ादी नहीं मिली पितृसत्ता से
लिखा है उन्होंने अस्मिता को ही मेरे नाम से...
इसीलिए
र से रोमियो नहीं रूढ़ियाँ याद आती हैं
ज से जूलियट जाति के नाम पे जकड़ दी जाती है
ध से धरती, धर्म के नाम पर बाँट दी जाती है..
ख से ख़्वाब नहीं आता
बस खून, खून, खून...
रगो से ज्यादा नालों में, सड़कों पे बहता है
धमनियों से ज्यादा दिमाग की नसों में फड़कता है....

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25 OCT 2022 AT 2:13

मुझे लगता है कि कुछ लोग
हर रोज़ दीवाली का त्यौहार
मनाते हैं. क्योंकि वे हर रोज़
अपने भीतर एक जंग लड़
रहे होते हैं. अमावस्या के दिन
घी का दिया जलाना बड़ा
आसान है. लेकिन मन के
अंधेरे कोने में उम्मीदों का
दिया जलाना सबसे ज्यादा मुश्किल!
ख़ासकर तब.. जब ये अंधेरा ही
आपको विरासत में मिला हो.
अपनी पूरी ताकत लगाकर
खुद से और पूरी दुनिया से लड़ना
और एक धुंधलाती सी आशा
को कसकर पकड़े रहना कि
"हां एक दिन इस लंबी सुरंग
के पार रोशनी ज़रूर दिखाई देगी!"

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28 JUN 2022 AT 22:05

पढ़ते जाना, थकते जाना, पढ़ते जाना, बांटते जाना, पढ़ते जाना, समझते जाना, पढ़ते जाना, दुःख से उबरते जाना, पढ़ते जाना, प्रेम पैदा करते जाना, पढ़ते जाना, अपने गुस्से की आंच को मद्धम करते जाना.

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4 APR 2022 AT 23:55

मोहब्ब्त मौजूदगी की मांग करती है
और यही बात मैं खुदा से कहती हूं

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