हमारी ओर से, कोई गवाही नहीं देता
और चिल्लाना भी हमारा, सुनाई नहीं देता
तोड़ मरोड़ कर, संतोष ढूंढ रही है दुनिया
क्या कुछ भी यहां, दिखाई नहीं देता
हालात, बद से, बदतर हो गए
साल, करीब सत्तर हो गए
सुना तो था, अपने हाथों में अपनी तकदीर है
जाने क्यों फिर, पैर थामे, अपनी सी ज़ंजीर है
थाली में अपनी, झांक कर तो देखो
वादों के फाके हैं, आँखों का नीर है
हालात, बद से, बदतर हो गए
साल, करीब सत्तर हो गए
आपस में, लड़ते रहे हम, ज़माने के लिए
वो आए ही कहाँ, कुछ बताने के लिए
कुछ पलों के लिए तो, खुलती है आँखें अपनी
हम जागते भी हैं मगर, फिर सो जाने के लिए
हालात, बद से, बदतर हो गए
साल, करीब सत्तर हो गए
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