कभी पैहम निकलती है, कभी कम कम निकलती है,
कभी बन चाँद पूनम का तो कभी मद्धम निकलती है!
सुरों को साथ लेकर छेड़ती सरगम बन निकलती है,
पहन कर पाज़ेब वो करती हुई छम-छम निकलती है!
कोई तो एक झटके में हुआ हूँ मैं ज़ब्ह उन हाथों से,
किसी का दम हलाली में फँसे थम थम निकलती है!
ज़बाँ अल्फ़ाज़ से ख़ाली, हलक़ आवाज़ से ख़ाली,
मगर दो आँख से पानी झमा-झम झम निकलती है!
मेरी इस ग़म की शनासी से, उदासी बद-हवासी से,
न उसकी लट संवरती है ना कोई ख़म निकलती है!
उठा कर हाथ अंगड़ाई वो, जब शोला-बदन तोड़े,
नहीं होता बयाँ, जो हुस्न का आलम निकलती है!
हज़ारों "राज" मरते हैं तुमपे, मुझे मौत क्यूँ न आई,
कहाँ अटका पड़ा है दिल, क्यूँ ये जान निकलती है! _राज सोनी
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