रात और दिन, दो सगी बहन।
दिन है बड़ी छैल छबीली,
रात है थोड़ी सी शर्मीली।
दिन का है ऐसा रहन सहन,
निकलती है वो रंग बिरंगी पोशाक पहन।
दिन करती है ढेरों साज-सज्जा,
जिस पर आये नादान रात को लज्जा।
पर इक दिन उसकी भी इच्छा जागी,
वो भी कुछ श्रृंगार करे, जन मानस
उसके रूप का भी गान करें।
दौड़ी भागी रात अकेली
राह में मिल गयी साँझ सहेली।
रात ने अपनी इच्छा बतलाई
साँझ ने हाथ थाम एक तरक़ीब सुझाई।
टांक लायी सितारें अपनी स्याह चूनर पर
ओढ़ लिया रात ने उसे झूम-झूम कर।
संग लगा ली एक लाल चाँद की बिंदिया
और देखो उड़ा दी मेरी आँखों की निंदिया।
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