QUOTES ON #श्रीभागवतानंद

#श्रीभागवतानंद quotes

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अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है
॥24॥
ये श्लोक श्री भागवत गीता से लिया गया है

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16 APR 2020 AT 9:30

निग्रहानुग्रहैः सम्यग्यदा नेता प्रवर्तते।
तदा भवन्ति लोकस्य मर्यादाः सुव्यवस्थिताः॥
जब नेता उचित प्रकार से निग्रह - दण्ड देना, अनुग्रह - कृपा करना प्रारम्भ करते हैं, तभी समाज में सारी मर्यादाएं व्यवस्थित होती हैं। ऐसा महाभारत में श्रीहनुमान् जी ने भीमसेन को कहा है।

विदेशी मान्यताओं वाले अपना मातम गुड फ्राइडे और मुहर्रम को मनाते हैं। हिन्दू अपना धार्मिक शोक कब मनाते हैं ? कभी नहीं। क्योंकि धर्म का अर्थ ही है शोक-सन्ताप से मुक्ति। आंतरिक प्रसन्नता धर्म से ही सम्भव है। हम केवल उत्सव मनाते हैं। किन्तु वर्तमान स्वार्थपूर्ण नेताओं के कारण उत्सव के अवसर क्षीण होते जा रहे हैं।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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2 MAY 2020 AT 14:47

मान्य शुभचिंतक गण हमें विवादस्पद विषयों से बचने की सलाह देते हैं। प्रथम तो यह कि विवाद उत्पन्न करते कौन लोग हैं ? हमने तो आज तक बिना शास्त्रीय सन्दर्भ के, निजी कल्पना से कोई बात कही ही नहीं। राममंदिर का विषय भी विवादित था, तो उसे क्यों नहीं छोड़ दिया गया ? कश्मीर और अरुणाचल भी विवादित है, उसे भी छोड़ दें ?

किसी को तो बलि पड़ना ही होगा। बड़े बड़े पीठाधीश्वर तो इसी चक्कर में चुप रह जाते हैं। हम भी चुप रह गए तो साधारण हिन्दू समाज का होगा क्या ? यदि हमें शास्त्रीय बातें बोलनी ही नहीं हैं तो व्यर्थ ही शास्त्राध्ययन किया न ! कोट पैंट पहनकर नौकरी की ठोकरें खाते रहते और या तो धर्म को गाली देते या फिर फ़र्ज़ी धर्मगुरुओं के चरण धोते रहते। किन्तु छोटी ही सही, जब तक हमलोगों की दीवार है, सनातन निराश नहीं होगा ...

सीधे मार्ग पर कभी कभी मार्गदर्शन न मिले तो भी लोग अपना मार्ग खोज लेते हैं, किन्तु जहां भ्रमित होने की संभावना है, वहां हमलोगों की उपयोगिता बढ़ जाती है। मैं केवल नश्वर निजी सुख के लिए धर्म को ऐसे हारता हुआ नहीं देख सकता हूँ।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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23 JUN 2022 AT 19:35

हिन्दू धर्म उदार है, असभ्य नहीं। अपनी असभ्यता को हिन्दू धर्म की उदारता के पीछे छिपाना बन्द करो। धर्म के दश लक्षणों में असभ्यता नहीं आती, इन्द्रियनिग्रह आता है। मनमानी करने को धर्म नहीं कहते, शम-दम और पवित्रता को धर्म कहते हैं। तीर्थस्थल में अथवा सामान्यतः भी दिन एवं जल में कामक्रीड़ा निषिद्ध है। व्यभिचार, अश्लीलता और असभ्यता का समर्थन उदारता नहीं, मनोविकार है।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु

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17 AUG 2022 AT 13:01

लोग कहते हैं कि मुझे खण्डन मण्डन छोड़कर अपनी साधना पर ध्यान देना चाहिए अन्यथा मेरी प्रगति नहीं होगी। मैं कहता हूँ, मुझे प्रगति नहीं चाहिए। मैं पिछड़ना चाहता हूँ, इतना अधिक पिछड़ना कि समाज के अन्तिम व्यक्ति को भी यदि धर्म के विषय में भ्रम हो तो उसके निवारण के लिए मैं उसके साथ खड़ा मिलूँ। मुझे जीवन में आगे नहीं बढ़ना है। मुझे जहाँ आना था, मैं वहीं पहुंचकर स्थित हूँ। मेरी उपस्थिति यहीं महत्वपूर्ण है। यदि मेरी सद्गति की चिन्ता भी मुझे ही करनी है तो मेरा इष्ट क्या करेगा ?

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु

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19 SEP 2020 AT 8:20

अपने वर्णधर्म के अनुसार शास्त्रोक्त निश्चित आजीविका का अनुसरण करने वाला व्यक्ति आपाततः दरिद्र हो सकता है किन्तु बेरोजगार नहीं, क्योंकि प्रकृति और धर्म व्यक्ति के जन्म से पूर्व ही उसकी आजीविका निश्चित करते हैं। नैसर्गिक वर्णसम्मत आजीविका का त्याग करके उससे भिन्न एवं पराश्रिता आजीविका की लालसा से ही बेरोजगारी का उदय हुआ है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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20 FEB 2020 AT 18:46

धर्म केवल धार्मिकों के लिए है।
धार्मिक केवल धर्म के लिए हैं।
धार्मिक व्यक्ति धर्म के विरुद्ध कुछ नहीं करता,
एवं धर्म भी नास्तिकों की कोई परवाह नहीं करता।
नास्तिक जब धर्म आदि को मानते ही नहीं,
तो फिर पूरा जीवन मानसिक आक्रोश लिए हुए
धर्म के खंडन में समय क्यों नष्ट करते हैं ?
एक ऐसा सिद्धांत, जिसे वे मानते ही नहीं,
उसके पीछे अपना संसाधन
और समय क्यों लगाते हैं ?

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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15 JUN 2020 AT 13:49

आपमें एकता भौतिक समानता से नहीं, वैचारिक समानता से आएगी। भौतिक समानता न सम्भव है, न वांछनीय। आपमें एकता न भी हो तो ये कोई बड़ी समस्या नहीं है। बड़ी समस्या तब होती है, जब इस बात की भनक आपके विपक्षी को लग जाये।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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10 JUN 2020 AT 12:47

ज्ञान का फल ही भक्ति है। जब ज्ञान का उदय होता है तो उसकी अभिव्यक्ति भक्ति के रूप में प्रत्यक्ष होती है। नाम जप, कीर्तन आदि बाह्य माध्यम है भक्ति को पुष्ट करने का। जैसे पानी में फल नहीं लगता है, किन्तु पानी को पेड़ में डालिये, पेड़ का पोषण कीजिये तो फल मिलता है। वैसे ही नाम-जप आदि खाद-पानी है।

ज्ञान वृक्ष है और भक्ति उसका फल है। दूसरे दृष्टिकोण में, भक्ति की पराकाष्ठा ज्ञान है। चार प्रकार में सर्वोच्च भक्त ज्ञानी को ही बताया
गया है। जैसे फल में पूरे वृक्ष का सार है, वैसे ही भक्ति में ज्ञान का
सार है। जैसे उसी फल का आगे पराकाष्ठा रूप वृक्ष होता है,
वैसे ही भक्ति की पराकाष्ठा ज्ञान है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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7 FEB 2020 AT 6:28

धर्मपरिवर्तन के दलाल ईसाई मिशनरियों की स्थिति स्वयं स्पष्ट नहीं है। वे कहते हैं कि हम सभी जन्मजात पापी हैं, और ईसा मसीह हमारे पापों को लेकर क्रूस पर चढ़ गए, इसीलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए। यदि उनकी इस बात को सत्य मान भी लें तो यहां दो स्थितियां हैं, या तो ईसा मसीह अपने इस कार्य में सफल हुए, या फिर असफल।

यदि वे हमें पापमुक्त करने में सफल रहे, तो फिर हम जन्मजात पापी कैसे रह गए ? अथवा उनके ही देशों के न्यायालय किसी भी अपराध का दण्ड दे ही क्यों रहे हैं ? चूंकि अब हम पापमुक्त हैं, ईसा के बलिदान से, तो हमें अब ईसा की आवश्यकता ही नहीं, और यदि ईसा मसीह हमें पापमुक्त नहीं कर सके, तो फिर हमें उनकी महानता क्यों सुनाई जा रही है, हम उनकी शरण में क्यों जाएं ?

एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जब ईसा स्वयं यहूदी थे तो हमें ईसाई क्यों बनाया जा रहा है, हमें यहूदी बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। यदि हम चमत्कारों की ही बात करें तो विश्वरूप दर्शन कराने वाले श्रीकृष्ण, पाषाण रूपी अहल्या को नारी देह देने वाले श्रीराम, एवं हलाहल विष का पान करने वाले भगवान् शिव जी के चमत्कारों में क्या कमी है ?

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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