मैंने बारिश में भीगना चाहा चौक में जंगल उग आया बारिश में क्या था ये जानना कौतूहल था तो एहसास में भीग कर ही प्रेम कर लिया मैंने .. .. मुझे चाँद छूना था रात की सीढ़ी चढ़ सफ़र पे निकली हाथ कुछ तारे लगे धरती पर पहुँचते ही वो जुगनू हो गए प्रेम कल्पना है कोरी .. .. प्रेम का हक़ीक़त से कोई वास्ता ही नहीं।
इक हँसी लिए अपने लबों पर, छुपा कर अपनी हर तड़पन को, कर गुमराह हर इक आंसू को, उस लम्हे बस उस प्यारी सी, मुस्कुराहट को, दिल भरने तक, महसूस करके खुश होने को, तड़प रहा हूँ मैं... (see caption)
क्यों आ जाती है संवाद हीनता अचानक रिश्तों की दहलीज पर, गायब सी हो जाती हैं बातें कुकुरमुत्ते सरीखे उग आते हैं न जैसे किसी ने चुप्पी का बीज बो दिया हो पहले तो यूं उगते थे शब्द कि बन जाती थीं कविताएं हर मुलाकात पर ऐसे गुम हो गई तुम्हारी छन की आवाज जैसे दरवाजों की बैठकें चौपालों पर होती चर्चाएं रातों की नींद और नींद में बनते बिगड़ते सपने लगता है कविता से एक दिन भाव भी मर जाएगा पर कैसे हार मान लूं मैं मुझे देखना है फिर से उन जंगलों में पलाश का खिलना.
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