तुमने जब जिन्दगी भर अन्धेरों में रखा मुझे अब मजारों पर दीपक जलाने से क्या फायदा जब कभी तुम जीते जी रूबरू मेरे हो न सके अब सुबह शाम ये सूरत दिखाने से क्या फायदा
तुमने समझे न मेरे दिल के कभी रंज-ओ-गम अब अपने ये झूठे आंसू दिखाने से क्या फायदा जब मेरे जख्मों के दर्द देखकर तुम हंसे उम्र भर अब अपनी हमदर्दियां भी दिखाने से क्या फायदा
पहले शूल बनकर के मेरे दामन को जख्मी किया अब वो रोज फूल माला चढाने से क्या फायदा जब तुमसे दूर इतना गयी कभी लौट सकती नहीं अब मुझको रोज यूँ वापस बुलाने से क्या फायदा
अब जो आता है इस धरती में उसे एक ना एक दिन जाना ही पड़ता है और आत्मा तो अमर है बस शरीर ही जिन पांच तत्वों से मिलकर बना था आज उन्हीं तत्वों में जा के मिल गया है।
दिए की लौ ही सही अरमान टिम टिमा से गए आरजुएं तेरी गुलज़ार रखने को देख कितनी बातियों के ज़िस्म जल कर राख़ हो गए वक्त की आंधी चली कुछ इस तरह जज़्बात धुआं और अरमान राख़ हो गए..!!
आम का मौसम है,बाग ...दिखा दूँ क्या? जल जल के हुआ हूँ मैं,कितना राख... दिखा दूँ क्या? और शहर में चंद लोग मुझे काफ़िर कहते है, अंदर से कितना हूँ मैं पाक... दिखा दूँ क्या?