थोडा-थोडा करके, कितने परिचित कितने अपरिचित चले गये। ना जाने ये कैेसी महामारी है बिना शस्त्र का युध्द कैसा, ये महाभारत से भी भारी है। हे दयानिधे । दया करो , अब कौन सी प्रलय की तैयारी है। हे प्रकृति। वास्तव में तेरी महिमा न्यारी है।।
नहीं लिखनी अब मुझे अनंत प्रेम की परिकल्पनाएं नहीं लिखनी अब मुझे इष्टों की कोई महानताएं नहीं लिखनी मुझे फूल,गिलहरी पर सरल कविताएं नहीं लिखनी मुझे स्त्री मन की प्रसव वेदनाएं
सत्तायें युद्ध नहीं करतीं निज कक्ष विचरती रहतीं हैं बल नायक के बल पौरुष पर अनिरुद्ध ऋचायें पढ़तीं हैं। शांतनु सुधीर गंभीर बनीं पृष्ठों पर थाप बजाती है वीदीर्ण वक्ष उनका होता यह अपनी नाप उठाती है।