कागज़ की नाव,
बरसों से,
मुझसे रूठी हुई थी,
आखिर उसको मैं,
यूँ ही,एक दिन,
जवानी की देहरी पर,
चढ़कर,
बहुत नीचे,
अपने बचपन में,
छोड़ आया था,
दिल दुखा,जब,
आज पोती की नाव ने,
मुझे बेरुखी से देखा,
मैंने झट से उसको,
गले लगाया,
और प्यार से मनाया,
आखिर आज एक और,
"लोट के बुद्दू,घर को आया"।
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