पता है तुम्हें
ये इश्क़ का वही पौधा है
जिसे तुमने अपनी मर्जी से बोया था
तुम्हारे जाने के बाद मैं
अपने दिल की नरम जमीं पर
उगे हुए इस इश्क़ के पौधे को रोज
थोड़ा-थोड़ा अश्क़ों से सींचता रहता हूँ
जानती हो तुम
अब ये बड़ा हो गया है
थोड़ा सा हरा भी हो गया है
लोग इसको बाग-ए-अश्क़ कहते हैं
मगर मैं आज भी बाग-ए-इश्क़ कहता हूँ
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