ना वो दरवाज़े रहे ना दरीचे
अब ताकने को कुछ भी नहीं,
शीशमहल सब हो गये
अब झांकने को कुछ भी नहीं,
सब हैं यूँ तो ज़माने से पऱ
मतलब है ज़माने से कुछ भी नहीं,
समंदर को सहारा है साहिल का
पऱ है थामनें को कुछ भी नहीं,
सब ख़ुदा से हैं यहां पऱ
है बांटने को कुछ भी नहीं,
जरूरतें तो हैं मेरी बहुत मग़र
है मांगने को कुछ भी नहीं..!
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