बूंदे
है तो
नन्ही सी,
लेकिन सहेज
ले जो खुद को तो
सागर की लहरें बन जाए,
कभी ओढ़कर चादर सिप की,
मोती बन ये इठलाए, कभी समाकर
मिट्टी में पेड़ को उसका अस्तित्व दे जाए
तो कभी किसी के दर्द में बनकर आंसू ये
बह जाए। अजीब है सफर बूंद का, मिल
कर बूंद से ये बूंद ही रहती,टूटकर खुद से
बूंद फिर से बूंद ही बनती। चाहत गजब
है इन बूंदों की धरती के कण कण से
बारिश बन आसमान से धरती पर
आकर फिर उसमे मिलती है
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