जीवन भर के तजुर्बे के बाद,
चेहरे पर आए शिकन कई
हर दौड़ में भाग लेकर देख लिया,
अब मन को स्पर्धा भाये नहीं
अनुभव इक्कठे कर लिए हमने,
जो ज़िन्दगी ने दिए थे किसी मोड़ पे कहीं
आ गए उम्र के उस पड़ाव पे हम,
जहां बच्चों सी मासूमियत लौट आए वही।
संभाली है जीवन भर ज़िम्मेदारियां,
बुढ़ापे में सारा बल छीन गया
किया है खड़ा संतान को अपने दम पर,
उसे समाज में जीने के काबिल किया
अपने हिस्से की खुशियां बांटी,
परिवार को सुखों का साहिल दिया
कितनी रातें ना सोए हम,
मजबूरियों ने खुद का मुंह सिल दिया।
अब लौट आए हैं वापस उसी पड़ाव पे,
जब चाहिए किसी का साथ हमें
शायद अब कर्मों का निचोड़ हीं मिले,
अगर इस उम्र में भी सुननी पड़े बात हमें
हमने तो ये बाग़ सजाई खून से सींचकर,
इन कांटों से भी जोड़े रखे जज़्बात हमें
अब तो मृत्यु का भी भय वैसे ही सताए,
जैसे बचपन में डरता था रात हमें।।
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