बसंत ऋतु तो एक, अप्रितम सा बहाना है,
हमें अपनें प्रिय का, सुखद सान्निध्य पाना है,
छुअन से उसके होती है, मन की वीणा झंकृत,
निरुत्तर होकर, अंतिम सोपान तक ले जाना है।
प्रकृति सुंदरी का, करने अनुपम श्रंगार,
नवकपोल भी ले आए है, मदमस्त बहार,
हर प्रेमी युगल के हृदय में, भर दे बस प्यार,
कुछ ऐसी ही है, ऋतुराज बसंत की फुहार।
अमवा भी बौराई, सुनकर कोयल की बोली,
सरसों के खेतों की भी, हौले से चितवन डोली,
मधुर मिलन की आस में, झिड़ आया राग-मल्हार,
भरने अपनी बाहो में, फागुन खड़ा द्वार के पार।
कामदेव ने पलाश के, पुष्पों की जो प्रतयंचा चढ़ाई,
अंर्तमन में प्रितम से, आलिंगन की प्यास बढ़ाई,
छूटा तीर तो भेद गया, इस हृदय को आर-पार,
तरूणी के मुखमंडल पर, सुप्त कामना मुस्काईं।
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