होली के अगले दिन भी सामने वाली चाय की दुकान बंद थी। मैं बालकनी में खड़ा, अपने बनाये गर्म पानी सी चाय से होठ और जीभ जला रहा था। नीचे पूरी सड़क अलग अलग रंगों से रंगी हुई थी। जाती हुई सर्दी और आती हुई गर्मी का अहसास होने लगा था।चाय की दुकान बंद होने से सामने खड़े ठेले वालों का व्यापार और दिनों के मुकाबले दोगुना चल रहा था। लोग सुबह से ही गन्ने का रस और बर्फ के गोले का आनंद ले रहे थे। तभी मेरी नजर दूर से आते दो लोगों पर पड़ी। मैंने उन्हें पहले भी कई बार देखा था, चाय की दुकान पर, इसीलिये दूर से ही पहचान गया। जब उन्होंने भी चाय की दुकान बंद देखी तो गोले वाले ठेले की ओर बढ़ गये। मैं उन्हें जानता भी नहीं पर दोनों को साथ देख मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी। गोले वाला गोले बना रहा था। सफ़ेद बर्फ के गोलों के साथ मानो होली खेल रहा हो, लाल, पीले, हरे रंगों से रंग रहा हो उन्हें। दोनों ने एक ही गोला लिया। पहले लड़की चूसती फिर लड़का। दोनों खुश दिख रहे थे। आज उनके बीच न चाय थी, न सिगरेट, बस था एक पिघलता, टपकता हुआ बर्फ का गोला। उसकी मिठास और रंग कम हो रहे थे मगर उनके जीवन में रंग आ गया था, मिठास आ गयी थी। मेरी चाय ठंढी हो चुकी थी, फिर भी अब मुझे दुकान वाली चाय सी लगने लगी थी।
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