तुम गंगा घाट की संध्या आरती मैं सुकून वही बनारस सा,
बगैर तुम्हारे कुछ भी नहीं मैं तेरी छुअन से बन जाऊँ पारस सा..
तुमसे मिलकर मैं खिल खिल जाऊँ और बगैर मिले हूँ नीरस सा,
तुम परिपूर्ण हो खुद अपने आप में और मैं किसी अधूरी ख्वाहिश सा..
तुम नायाबी की मिसाल ठहरी और मैं उसमें नुमाइश सा,
तुम घासलेट की बूँद हो छोटी और मैं तुम्हें सुलगाता माचिस सा..
तुम आसमाँ के विस्तार सी और मैं नदारद चाँद अमावस सा,
तुम हो सूखी रेत के मानिंद मैं मिल जाऊँ उसमें बारिश सा..
तुम गंगा घाट की संध्या आरती मैं सुकून वही बनारस सा,
बगैर तुम्हारे कुछ भी नहीं मैं तेरी छुअन से बन जाऊँ पारस सा..
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