समर्पण ही किया था मैंने,
वो कोई शरणागति नहीं थी...
मुझे तो चाहिए था सात जनमों का साथी
तुम्हें तो दिन में कामवाली और रात को बाहोंमे आनेवाली की तलाश थी...
मैंने अपने पैर पर खडा होना चाहा
पर तुमने इनाम दिए वह बेल्ट के निशान
अपाहिज बना गए मेरे पैर....
मैंने सिर उंचा कर जीना चाहा
तब तुमने गर्दन मरोड़ सिर झुकाया मेरा...
शादी के वक्त हाथ-पाँव मेहंदी से सजे थे
तुने मांग मे सिंदूर सजाकर
जख्म से जिस्म सजाने का हक ही पा लिया...
यूं तो बाहर दुनिया से डरने वाले कायर तुम
कमरे के अंदर मर्दानगी बहुत दिखाते हो...
तुम्हारी हर फटकार मे
प्यार की उम्मीद ढुंढती रही मैं...
पर अब बस...
तूने समझा होगा काँच की गुडिया
पर खुद्दारी के लोहे से बनी मूरत हूँ...
जो आज भी कहती हैं तडप तडप कर,
ये समर्पण हैं मेरा,
इसे शरणागति समझने की भूल न करना...
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