त्राहि - त्राहि सब पंछी करते, सब ताल- तलैये सूख गए,
पेड़ों की अंधा धुंध कटाई से, हर प्राणी इस जग के रो रहे।
बारिश की आस में धरती पलकें बिछाए रह जाती है,
बूंद बूंद पानी को तरसे ऐसी हालात क्यों हो आती है?
पंछियों के मधुर कलरव अब जाने कहां गुम हो गई है,
वो रंग- विरंगे तितलियों की टोली आंखो से ओझल हो गई है।
बाढ़ ढ़ाने लगी है कहर अपना, किसानों को प्रतिवर्ष रुला कर जाती है,
हिमनद पिघलते दावानल में, जनजीवन अस्त - व्यस्त हो जाती है।
कूड़े - कर्कट के ढ़ेर शुद्ध सांस भी न लेने देती है,
प्लास्टिक के अत्यधिक उपयोग जीना दूभर कर देती है।
हाहाकार है समस्त भू भाग में,प्रकृति भी घबराई है,
पूछ रही है मनु पुत्रों से कैसी ये विपदा आयी है?
धरती,पानी बिन हवा के तुम कैसे रह पाओगे?
सोचो न हो गर वृक्ष धरा पर, सांस कैसे ले पाओगे?
पर्यावरण के इस कदर दोहन से हे मानव तुम एकदिन पछताओगे,
जो रखनी हो सबको स्वस्थ यहां तो लो संकल्प कि एक वृक्ष प्रतिवर्ष लगाओगे।।
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