वो पगली दर्द से मुख़ातिब होना चाहती है
न जाने क्यों तेज़ाब चखना चाहती है...
कुछ ज्यादा ही जी को, बहला लिया ख़ुशी से
शायद इसलिए दर्द से खेलना चाहती है...
आप रखते हो श़ौक-ए-मल्लिका, दर्द क्या जानो
ये ख़ुदा की बरकत, सिर्फ़ फ़क़ीरों को नसीब होती...
यूँ ही नहीं मिलते, ये कम्बख़त गम
शोलो से खेलने वालों को इनायत कमाल होती...
दुःख जिसने पाया वहीं जाने ज़िन्दगी की असल क्या
सुख की महफ़िल में अक्सर जमावड़े रहते परायों के...
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