जब भी नयी जगह जाता हूँ;
खुद को उसकी भूलभुलैया में;
गुमशुदा कर जाता हूँ।
कोशिश करता हूँ ना देखूँ
उसमें 'मंजिल'; ना ही 'पड़ाव'।
भूले से भी नहीं
जाता हूँ 'मैं' बनकर
ना ही,
उसके रंग में रंगकर 'हम' बन जाता हूँ;
जब भी मैं किसी नयी जगह जाता हूँ!
उसका थोड़ा सा 'तुम' लेकर
अपना थोड़ा सा 'मैं' देकर;
जिंदगी के बाजार में
ये 'सौदा' निपटाता हूँ;
जब भी मैं किसी नयी जगह जाता हूँ!
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