किसी बेसहारा मासूम के,
लुटते अधिकारों पर भी,
आगबबूला होकर,
क्रोध से तुम धधकते क्यों नहीं।
किसी कमज़ोर मज़लूम की,
दर्द भरी चीखों पर भी,
किसी कोयले की भट्टी के,
अंगार से तुम भड़कते क्यो नहीं।
किसी दूसरे के अधिकारों के हनन पर,
बस निष्क्रिय पड़े न रहकर,
कंधे से कंधा मिलाकर,
ऐ दिल! तुम लड़ते क्यों नहीं।
जीवित मनुष्य की काया में बसते हो,
किसी पर जुल्म देखकर भी,
किसी मृत शरीर से बने रहकर,
ऐ दिल! तुम धड़कते क्यों नहीं।
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