मैं एक दरख़्त हूँ कभी मेरे साये में बैठ कर तो देख मैंने हज़ार बाहें फैला रखी हैं तू भी मुझसे लिपट कर तो देख तूने अपनी बांहों में टैटू बना रखा है मेरे बदन पर भी किसी का नाम गुदवा के तो देख
दरख़्त से गिरी वो पत्तियाँ, है असहाय पीड़ा में.. कुचले जाने के डर से,
है दबी चिल्लाहटों में.. अस्तित्व खोने के डर से, दरख़्त से गिरी वो पत्तियाँ, . . . किसी ज़िद्दी तूफान के गुज़रने भर का असर है, क्षीणता को भोग रही वो गिरी पतियाँ !!