वो मुझ से कुछ ख़फ़ा है,
कहती है मेरा ज़ुर्म बड़ा 'संगीन' है
मैं 'तारीफ़' नहीं करता उसकी,
कहता नहीं कि वो 'हसीन' है
कहाँ से लाऊँ अल्फ़ाज़, कैसे कह दूँ उससे यह झूठ
की वो 'सिर्फ़ हसीन है'
वो जो, 'बयाबान' रेगिस्तान में खड़े
हरे-भरे 'दरख़्त' से भी हसीन है,
राह भटके किसी बंजारे को मिली
'ठंडी छाँव' से भी हसीन है,
दूर अंतरिक्ष से दिखती
इस 'नीली धरती' से भी हसीन है,
वो जो, वन में कुलांचे मारती
उस 'हिरनी' से भी हसीन है,
पूनम में नहाई किसी झील से,
लहराती पतंग को एकदम दी गयी ढील से,
फ़कीर को मिले 'दुशाले' से,
भूखे किसी बच्चे को मिले 'निवाले' से,
वो जो, चिलचिलाती 'धूप' में
किनारों पर बिखरे 'अभ्रक' से भी हसीन है,
कैसे कर दूँ मैं तारीफ़ उसकी
वो जो सारी 'क़ायनात'..
और ख़ुद 'हसीन' से भी हसीन है
- साकेत गर्ग
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