QUOTES ON #दरख्त

#दरख्त quotes

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15 MAR 2020 AT 15:13

सहारे की तलाश ना कर तो अच्छा है।
औरत होने का मतलब, तू खुद एक दरख़्त है।

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9 FEB 2019 AT 10:46

दरख़्तों का सीना लहू से लतपता रहा है,
ये सीमेंट के इमारतें उस पर नमक रगड़ कर आसमाँ से इश्क़ फ़रमाने में मशग़ूल है.....

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16 JUL 2019 AT 14:01

ख्वाहिशों का पुलिंदा बाँध, हम चले ख्वाबों के रस्ते,
दरख़्त हौसले का और हासिल सुकूं की छाँव तो हो !

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9 JAN 2020 AT 20:36

बहार के शज़र जैसी मेरी बातें।
खिजां के दरख़्त जैसा तुम्हारा रवैया।

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7 NOV 2020 AT 18:22

मुझपे गिरते ये दरख़्त के हरे पत्ते,
जैसे नज़्मों से भरे पन्ने लग रहे हैं।

जिन्हें मानो कभी मैंने ही लिखा हो,
और अब टूट के मुझपे ही बरस रहे हैं।

जो गुनगुना रहे हैं मेरे ही लिखे गीत,
जैसे छाए मौन को शोर में बदल रहे हैं।

बिखर रहे हैं कुछ ऐसे पास आकर मेरे,
जैसे एक और नज़्म सुनने को तरस रहे हैं।

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10 JUN 2017 AT 2:05

वो मुझ से कुछ ख़फ़ा है,
कहती है मेरा ज़ुर्म बड़ा 'संगीन' है
मैं 'तारीफ़' नहीं करता उसकी,
कहता नहीं कि वो 'हसीन' है
कहाँ से लाऊँ अल्फ़ाज़, कैसे कह दूँ उससे यह झूठ
की वो 'सिर्फ़ हसीन है'
वो जो, 'बयाबान' रेगिस्तान में खड़े
हरे-भरे 'दरख़्त' से भी हसीन है,
राह भटके किसी बंजारे को मिली
'ठंडी छाँव' से भी हसीन है,
दूर अंतरिक्ष से दिखती
इस 'नीली धरती' से भी हसीन है,
वो जो, वन में कुलांचे मारती
उस 'हिरनी' से भी हसीन है,
पूनम में नहाई किसी झील से,
लहराती पतंग को एकदम दी गयी ढील से,
फ़कीर को मिले 'दुशाले' से,
भूखे किसी बच्चे को मिले 'निवाले' से,
वो जो, चिलचिलाती 'धूप' में
किनारों पर बिखरे 'अभ्रक' से भी हसीन है,
कैसे कर दूँ मैं तारीफ़ उसकी
वो जो सारी 'क़ायनात'..
और ख़ुद 'हसीन' से भी हसीन है
- साकेत गर्ग

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1 MAY 2017 AT 2:09

ख़ामोश सी एक नदी का किनारा था
किनारे पर खड़ा एक हरा-भरा दरख़्त था
दरख़्त के नीचे एक चटाई बिछाई थी
चटाई पर फूलों की सेज़ भी सजाई थी
तभी एक मदमस्त हवा का झोंका आया
ज़ालिम झोंके ने मासूम पंखुड़ियों को उड़ाया
उड़ती-उड़ती पंखुड़ियां जा पहुंची उनके कऱीब
खुली थी ज़ुल्फें जिनकी, देखता रहा मैं गऱीब
बला का हुस्न था, हुस्न में ख़ुशनुमा रवानी थी
शुरू हुई यहीं से हमारी मोहब्बत की कहानी थी
आज भी बैठे हैं उसी नदी के किनारे
मगर नदी में अब उफ़ान है
दरख़्त है अभी भी वहाँ
पर वो भी अब 'हरे' से अन्ज़ान है
चटाई है, पर मटमैली सी
फ़ूल हैं, पर मुरझाये से
हवा का झोंका भी अब गर्म है
हमारी तबीयत भी कुछ नर्म है
लगता है जैसे कुछ कमी है
मौसम में घुल रखी नमी है
ना वो खुली ज़ुल्फ़ों का नज़ारा है
ना उसके हुस्न के दीदार का सहारा है
बैठा हूँ मैं अब भी वहाँ
भूल आया हूँ अपना सारा 'जहां'
इंतेज़ार है, क़रार है
ख़ुदा है, उस पर ऐतबार है
- साकेत गर्ग

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1 AUG 2020 AT 11:44

हर गुनाह पर, वो एक और गुनाह था करता
माफ़ करता भी, तो मैं कैसे उसे माफ़ करता

वो खुदा था मेरा और मैं इबादतगार उसका
रहता भी अगरचे वो, तो कैसे मेरे काबू रहता

जिस घनी छाँव का तलबगार था दिल मेरा
दरख्त ए ताड़ था, वो देता भी तो कैसे देता

वो जो फैला, तो शाखें पराए घरों को गयीं
सिमटा मेरे आंगन में रहता भी तो कैसे रहता

हैं जड़ें आज भी उसकी, मेरे ज़ेहन में फैलीं
काश के लौट वो आता, मुझे कुछ तो कहता

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21 MAY 2017 AT 2:00

आवारा सा वो बादल
पानी भर कर उड़ रहा था
बरसना चाहता था
मतवाला होकर
चल रहा था
शायद मयख़ाने से आया था
दूर कहीं जाना था
किसी हसीन लबालब
नदी से मिलना चाहता था

उड़ते-चलते जा टकराया
उस निर्दोष चाँद से
जो खोया था
किसी के दीदार में

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9 JUL 2017 AT 6:28

एक कविता भले ही विशाल
दरख्त की तरह हो,
उसकी शुरुआत चंद शब्दों के
बीज बोने से ही होती है।

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