तरंग बन के इस जीवन की,
तुम आए प्रीतम तरुवर से,
जो व्यथा कही ना गयी कभी ,
उमड़ी आतुर हो झर-झर के।
तेरी शीतल सी छाया में,
मन का संपूर्ण संताप मिटा,
बंजारन सी मैं फिरती थी,
तेरे आँगन सोपान मिला|
नेत्र स्वप्न भर सजने लगे,
मन-मंदिर में संचार हुआ,
हृदयगति मद्धम रह न सकी,
तरुणी को तुमसे प्यार हुआ|
घनघोर घटा भी जाने क्यों,
अब तो मनभावन लगती है,
तेरे प्रेम की रश्मि छन-छन,
मुखमण्डल रोशन करती है|
नवकोपल सी मैं बढ़ने लगी,
तेरी प्रेममय रसधार लिए,
बन तरंग सदा अब रहना,
समुचित प्रियवर प्राण प्रिये|
-