ज़िन्दगी चलती रही, रोज़ नए बहाने लिए,
हर शाम लौटा परिंदा, मुँह में कुछ दाने लिए
यूँ तराशा मुझे, के कर दिया मुझ को पत्थर,
लोग मिलते हैं, फ़कत फूल चढ़ाने के लिए
जो खुदा है, वो बैठा है किसी फ़क़ीर के घर,
मंदिर-ओ-मज़जिद तो बने बैर बढ़ाने के लिए
यूँ बारहा अब जो मैं तुझ को याद करता हूँ,
भूल चुका हूँ तुझे, खुद को यह समझाने के लिए
ना खुद के लिए और न ज़माने के लिए,
अश्क़ बहते हैं जिगर की आग बुझाने के लिए
काश मैं रोक लेता तुझे, तो यूँ न तड़पता रहता,
तू भी कब निकला था मुझे छोड़ के जाने के लिए..
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