जरूरी नहीं सब गोरी स्त्री सुंदर हो कुछ काली भी होती है मन के मिट्टी पर कल्पना के कपास उगाती है, और उड़ा देती है अपने शब्दों को फाहे में संभाल आसमां की ओर कभी संभाल लेता है आसमां उन वजूदों को कभी बरस भी जाता है आदतन और फिर दब जाती हैं हो जाती हैं भारी वो सुंदर ,काली स्त्री.....
काली सी रात के इस पहर में, देखा खुद को जब आईने में, ना दिखा कुछ भी ऐसा, बनना था मुझको जैसा, सारे सपने अपने दफ़ना कर, छोड़ कर मैं अपना दर, चली आई अपने इस घर, अपनी ही पहचान भुला कर।