मुश्किलों को हौसले से, वो आसान बनाता है।
हारता नहीं अंधेरों से जो, वो पहचान बनाता है।
खटता है दिन रात खेतों में, पसीनें में लथपथ
हमारे खुराक का अन्न, जो किसान बनाता है।
फसल खराब हो तो, रोटी अखरती है उसको
निगरानी करने को खेत में, वो मचान बनाता है।
बारिश में छत टपकती है, उस मजदूर की
शहर में दूसरों के जो, बड़े मकान बनाता है।
रेखाएँ क्या कहती हैं, क्यूं उलझे हो "नवनीत"
अपने कर्म की रेखा, तो खुद इंसान बनाता है।
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