जब शब्दों की हांडी पर दाल भात पक जाते हैं, भावों के मांझे से कविता की कनकैया उड़ाते हैं, सूखी नदी में गीतों का झरना नहाते हैं, वही बोल अमर होकर गुलज़ार बन जाते हैं
बात करने की आस जताकर बुझी मेरी वो आग जलाकर मुझको आधी-रात जगाकर ख्वाबों की उस मुलाकात को आज भी मेरी सुनसान रात को अपने आने की... आहटों के... इंतज़ार से... भर दिया... ये तुमने अच्छा किया...
विरह आग है जिसमें शरीर नहीं जलता जलती है तो केवल आत्मा दो आत्माओं के मिलन से बना रिश्ता जब आख़िरी साँस लेता है तो बिलख पड़ता है आसमान रो देती है धरती और शोक में डूब जाता है पूरा ब्रह्मांड विरह हलाहल(विष) है जो गले में ही कहीं अटका रहता है जिसे निगला नहीं जा सकता और उगलना भी मुश्किल होता है जब विरह वेदना चरम पर पहुँच जाती है तब नर्म सा हृदय कठोर बनने लगता है और फिर अंत हो जाता है संयोग-वियोग के इस खेल का
लौट आओ तुम अपनी दुनिया में जिसे हम दोनों ने मिल कर बनाई है जानती हूं जिस दुनिया मे हो वहाँ खुश नही।।।। मजबूरी का नाम देकर खुद को मत जलाओ उस आग में जहाँ ना जाने कितनी साजिशें रची जाती है हमारे खिलाफ हर दिन।।।। जानती हूं बेखबर हो तुम हर उस बात से जो तुम कभी सपने में भी नही सोच सकते मगर जिस दिन सच का पर्दा उठेगा मानो तुम्हारे पैरो तले ज़मीन खिसक जायेगी.... अभी भी वक़्त है सम्भल जाओ....