फूट-फूटकर रोई थी आंसुओं से भीगी रात बड़ी मुश्किल से सोई थी फिर सुबह ने रात को बड़े प्यार से संभाल लिया था रात के झर-झर बहते आंसुओं को ओस बना लिया था ...
जब अपने पास रहे तब फुलों के महेक जब अपने पास हो कर दुर रहे तब जीवन बने नर्क जब साथ निभाये साथीयां तब रोशनी खुशी से झलके जब साथ छोड़ दे साथीयां तब आंसु आंखो मे छलके।
आंसुओ से भीगी रात तेरी याद का कांधा चाहती है, दिल खोलकर फिर एक बार आज रोना चाहती है, दिल में दर्द बेशुमार लिए ये रात आज चुपचाप है, होंठ हैं खामोश इस कदर जैसे सुबह देखना चाहती है।
ना कृतज्ञता की लालसा रखता है ना अशांत मन की बात को उच्च शांति मिलने की उम्मीद करता है। लेकिन आसुओं से गुज़ारे रात जगाते हैं वो महत्पूर्ण समय को; उस खुशी या दुःख में बसे हुए सोच-विचारों की दिशा को एक प्रतिबिंब पाने के लिए राहत देता हैं जिससे यह जीव और अधिक मजबूत, संवेदनशील हो सके इससे पहले कि कोई सन्नाटा उसे ख़ूबसूरत झूठ की तरह आत्मसात कर ले।
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