जमाने ने शिद्दत से निभायी , वफाये अपने उसूलों की
पर हम दोनों ने ना की बेवफ़ाई , एक दूसरे को पाने के बाद...
मोड़ने लगे हैं हम , अपनी राहें उनकी मंजिल से
पर किसी और की चाह न रहेगी , एक उनकी चाह के बाद...
निगाहें मिला ना पायेंगे , कभी उनसे उस निगाह के बाद
हाल ऐसा है हमारा , जो होता है किसी गुनाह के बाद...
ज़मीर इंसानियत की हो तो , थोड़ी ही सही पर कांप तो जाती है
फिर ऐसा चाहे हो गुनाह से पहले , या हो गुनाह के बाद...
कैसे करूं ख़िलाफत अपने उन, रिश्तों की उस रिश्ते की खातिर
जो ना थी उनके आने से पहले, ना रहेगी उनके जाने के बाद...
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