घर की किवाड़ें, झरोखें, खिड़कियां
बंद क्यों, क्या घर की ये है लड़कियां?
बस दीवारें, दीवारें, दीवारें ही हैं
घुट घुट के मरते अब सारे ही हैं।
खुला घर ना बरसों, वो खंडहर हुआ
ना लगी धूप जिसको, ना पानी हवा।
खोल दो खिड़की, ठंडी हवा आने दो
लगे जाले बरसों के झड़ जाने दो।
झांक कर देखो फैला अनंतकाल नभ
ये आज़ाद पक्षी, निरंत चाल सब।
झांक कर देखो, खिलती हुई क्यारियां
झांक कर देखो, फल से लदी डालियां।
झांक कर देखो बहुत खूबसूरत है जग
यहां लड़की का होना, कहां और कब।
झांक कर देखो, गीरेबा गन्दी क्यों है
खिड़कीयों में लड़कियां बंधी क्यों है।
ये समाजों में बंधी, डरी लड़कियां
खोल दो इनको, घर की ये है खिड़कियां।
- सुप्रिया मिश्रा
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